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________________ ३४५ ] तिलोयपण्णत्ती [ ४. १५२१ वीरंगजाभिधाणो' तकाले मुणिवरो भवे एक्को । सव्वसिरी तह विरदी सावयजुगमग्गिदत्तपंगुसिरी ॥ १५२१ आणाए ककिणिमो णियजोग्गे साहिदूण जणपदए। सो कोइ णत्थि मणुओ जो मम ण वस त्ति भणदि मंतिवरे ॥ १५२२ अह विण्णर्विति मंती सामिय एक्को मुणी वसो गस्थि । तत्तो भणेदि कक्की कहह रिसी कोविणीओ "सो ॥१५२३ सचिवा चवंति सामिय सयलअहिंसावदाण आधारो । संतो विमोक्कसंगो तणुढाँणकारणेण मुणी ॥ १५२४ परधरंदुवारएK मज्झण्हे कायदरिसणं किच्चा । पासुयमसणं भुजदि पाणिपुडे विग्घपरिहीणं ॥ १५२५ सोदूण मंतिवयणं भणेदि कक्की अहिंसवदधारी । केहि सो वञ्चदि पावो अप्पा जोणहि य सव्वभंगीहिं ॥ १५२६ तं तस्स अग्गपिंडं सुक्कं गेण्हेहे अप्पघादिस्स । अथ जाचिदम्हि पिंडे दादूणं मुणिवरो तुरिदं ॥ १५२७ कादूणमंतरायं गच्छदि पावेदि ओहिणाणं पि । अकारिय अग्गिलयं पंगुसिरीविरदिसम्बसिरी ॥ १५२८ भासइ पसण्णहिदओ दुस्समकालस्स जादमवसाणं । तुम्हम्ह तिदिणमाऊ एसो अवसाणकक्की हु॥ १५२९ ताहे चत्तारि जणा चउविहआहारसंगपहुदीणं । जावजीवं छडिय सण्णासं ते करती य ।। १५३० उसके समयमें वीरांगज नामक एक मुनि, सर्वश्री नामक आर्यिका तथा अग्निदत्त (अग्निल) और पंगुश्री नामक श्रावकयुगल (श्रावक-श्राविका) होते हैं ॥ १५२१ ॥ वह कल्की आज्ञासे अपने योग्य जनपदोंको सिद्ध करके मंत्रिवरोंसे कहता है कि ऐसा कोई पुरुष तो नहीं है जो मेरे वशमें न हो ? ॥ १५२२ ॥ । - तब मंत्री निवेदन करते हैं कि हे स्वामिन् ! एक मुनि आपके वशमें नहीं है। तब कल्की कहता है कि कहो वह अविनीत मुनि कौन है ? इसके उत्तरमें सचिव अर्थात् मंत्री कहते हैं कि हे स्वामिन् ! सकल अहिंसावतोंका आधारभूत वह मुनि विमुक्तसंग अर्थात् परिग्रहसे रहित होता हुआ शरीरकी स्थितिके निमित्त दूसरोंके घरद्वारोंपर कायको दिखलाकर मध्याह्नकालमें अपने हस्तपुटमें विघ्नरहित प्रासुक अशनको ग्रहण करता है ॥ १५२३-१५२५ ॥ . इसप्रकार मंत्रिवचनको सुनकर वह कल्की कहता है कि वह अहिंसाव्रतका धारी पापी कहां जाता है, यह तुम स्वयं सर्व प्रकारसे पता लगाओ। उस आत्मघाती मुनिके प्रथम पिण्डको शुल्कके रूपमें ग्रहण करो। तत्पश्चात् [ कल्कीकी आज्ञानुसार ] प्रथम पिंडके मांगे जानेपर मुनीन्द्र तुरंत उसे देकर और अन्तराय करके वापिस चले जाते हैं तथा अवधिज्ञानको भी प्राप्त करते हैं। उस समय वे मुनीन्द्र अग्निल श्रावक, पंगुश्री श्राविका और सर्वश्री आर्यिकाको बुलाकर प्रसन्नचित्त होते हुए कहते हैं कि अब दुष्षमाकालका अन्त आचुका है, तुम्हारी और हमारी तीन दिनकी आयु शेष है, और यह अन्तिम कल्की है ॥ १५२६-१५२९ ॥ तब वे चारों जन चार प्रकारके आहार और परिग्रहादिकको जन्मपर्यन्त छोडकर संन्यासको ग्रहण करते हैं ॥ १५३० ॥ १ द ब भिधाणा. २ दब मग्गिदत्ति. ३ द मंतिपुरो, ब मंतिपुरे. ४ द ब सामय. ५ दब केविणीआओ. ६ द ब सचिवी. ७द बतणुवाण. ८ दब परपर. ९द पासुयमसणं हि, ब पासुयमसण हिं. १० दब विप्पुपरिही. ११ द ब कह. १२ द ब जायणदि सब्वभंगीहिं. १३ द ब गेण्हेव. १४ दब सम्वसिद्धीहिं. १५ द तुम्ह म्हि. १६ दब करतीए. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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