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________________ ३१८] तिलोयपण्णत्ती [४. १३१९ तत्तो पुब्बाहिमुद्दा दीउषधणस्स दारसोवाणं । चडिदूर्ण वणमो चलति उवजलधिसीमतं ॥ १११९ तप्पणिधिवेदिदारे पंचंगबलाणि ताणि णिस्सरिया। सरितीरेण चलते वेयगिरिस्स जाव वणवर्दिा १२० तत्तो तब्वणवेदि धरिदणं जंति पुवदिब्भाए । तगिरिमझिमकूडप्पणिधिम्मि य घेदिदारपरियतं ॥ १३२१ तदारेणं पविसिय वणमझे जंति उत्तराभिमुहा । रजदाचलतडवेदि पाविय तीए वि चेटुंति ॥ १३२२ तधेि तग्गिरिमजिसमकूडे वेयड्वेंतरो णाम । आगंतुगभयवियलो पणमिय चक्कीण पइसरह ॥ १३२५ तम्गिरिदक्खिणभाए संठियपण्णासणयरखयरगणा । साहिये आगच्छंते पुब्बिल्लयतोरणहारा ॥ १३२४ तत्तो तव्वणवेदि धरिदूणं एंति पच्छिमाभिमुहा । सिंधुवणवेदिपासे पविसंते तग्गिरिस्स दिग्ववर्ण ॥ १३२५ तांधे तग्गिरिवासी कदमालो णाम वेतरो देओ। आगंतूर्ण वेयढगिरिदारकवाडफेडणोवायं ॥ १३२६ तस्वदेसवसेणं सेणवई तुरगरयणमारुहिय । गहिऊण दंडरयणं णिस्सऍदि सडंगबलजुत्तो ॥ १३२७ सिंधुवणवेदिदारं पविसिय गिरिवदितोरणहारे । गच्छिय खंधपहाए सोवाणे चडदि बलजुत्तो ॥१३२८ __ वहांसे वे पूर्वाभिमुख होकर द्वीपोपवनके द्वारकी सीढ़ियोंपर चढ़कर वनके मध्यमेंसे उपसमुद्रकी सीमा तक जाते हैं ॥ १३१९ ॥ .. समुद्रके समीपकी वेदीके द्वारसे वे पंचांग बल निकलकर विजयार्द्धगिरिकी वनवेदिका तक नदीके तीरसे जाते हैं ॥ १३२० ॥ फिर इसके आगे उस वनवेदीका आश्रय करके पूर्वदिशामें उस पर्वतके मध्यम कूटके समीपमें वेदीद्वारपर्यन्त जाते हैं ॥ १३२१ ॥ पश्चात् उस वेदीद्वारसे प्रविष्ट होकर वनके मध्यमेंसे उत्तरकी ओर गमन करते हैं और रजताचल अर्थात् विजयार्द्धके तटकी वेदीको पाकर वहांपर ही ठहर जाते हैं ॥ १३२२ ॥ उस समय विजयाईगिरिके मध्यम कूटपर रहनेवाला वैताढ्य नामक व्यन्तर देव आगन्तुक भयसे विकल होता हुआ प्रणाम करके चक्रवर्तियोंकी सेवा करता है ।। १३२३ ॥ उस पर्वतके दक्षिणभागमें स्थित पचास नगरोंके विद्याधरसमूहोंको सिद्ध करके पूर्वोक्त तोरणद्वारसे वापिस आते हैं ॥ १३२४ ॥ इसके आगे उस बनवेदीका आश्रय करके पश्चिमकी ओर जाते हैं और सिन्धुवनवेदोके पासमें उस पर्वतके दिव्य वनमें प्रवेश करते हैं ॥ १३२५ ॥ ___ तब उस पर्वतपर रहनेवाला कृतमाल नामक व्यन्तर देव आकरके विजयार्द्ध पर्वतके द्वार कपाटोंके खोलनेका उपाय [ बतलाता है ] ।। १३२६ ॥ उसके उपदेशसे सेनापति तुरग रत्नपर चढकर और दण्ड रत्नको ग्रहण करके षडंगबलसहित निकलता है ।। १३२७ ॥ वह सिन्धुवनवेदीके द्वारमें प्रवेश करके पर्वतीय वेदांके तोरणद्वारमें होकर सैन्यसहित स्कंधप्रभा ( खण्डप्रपात ) नामक गुफाकी सीढ़ियोंपर चढ़ता है ॥ १३२८ ॥ । १द व तावे. २ द सोहिय. ३ द ब तस्सुवदेसएणं. ४ णिन्भरदि. , ५ द ब चलदि. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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