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________________ २८४] तिलोयपण्णत्ती [ ४.१०७४ तित्तादिविविहमण्णं विसजुतं जीए वयणमेसेण । पावेदि णिग्विसत्तं सा रिद्धी वयणणिग्विसा णामा ॥ १०७४ अहया बहुवाहीहिं परिभूदा झत्ति होति णीसेगा । सोढुं वयणं जीए सा रिद्धी वयणणिविसा णामा ॥१०७५ रोगविसेहिं पहदा दिट्टीए जीए झत्ति पार्वति । णीरोगणिम्विसत्तं सा भणिदा दिविणिविसा रिद्धी ॥ १०७६ ।एवमोसहिरिद्धी समत्ता। छन्भेया रसरिद्धी यासीदिटिविसा य दो तेसु । खीरम(अमियसप्पीसविभो चत्तारि होति कमे ॥ १०७७ मर इदि भणिदे जीओ मरेइ सहस त्ति जीए सत्तीए । दुक्खरतवजुदमुणिणा आसीविसणामरिद्धी सा ॥१०७८ जीए जीओ दिवो महासिणा रोसभरिदहिदएण । अहिदटुं व मरिजदि दिट्टिविसा णाम सा रिद्धी ॥ १०७९ करयलणिक्खित्ताणिं रुक्खाहारादियाणि तक्कालं । पार्वति खीरभावं जीए खीरोसवी रिद्धी ॥ १०८० अहवा दुक्खप्पहुदी जीए मुणिवयणसर्वणमेत्तेणं । पसमदि णरतिरियाणं स श्चिय खीरोसवी रिद्धी ॥ १०८१ मुणिकरणिक्खित्ताणि लुक्खाहारादियाणि होति खणे । जीए महुररसाइंस चिय महवोसवी रिद्धी ॥१०८२ जिस ऋद्धिसे तिक्तादिक रस व विषसे युक्त विविध प्रकारका अन्न वचनमात्रसे ही निर्विषताको प्राप्त हो जाता है, वह वचननिर्विष नामक ऋद्धि है ।। १०७४ ॥ अथवा, जिस ऋद्धिके प्रभावसे बहुत व्याधियोंसे युक्त जीव वचनको सुनकर ही झटसे नीरोग हो जाया करते हैं, वह वचन निर्विष नामक ऋद्धि है ॥ १०७५ ॥ रोग और विषसे युक्त जीव जिस ऋद्धिके प्रभावसे झट देखनेमात्रसे ही नीरोगता और निर्विषताको प्राप्त करते हैं, वह दृष्टिनिर्विषऋद्धि कही गयी है ॥ १०७६ ॥ .. इसप्रकार औषधिऋद्धि समाप्त हुई। आशीविष और दृष्टिविष ऐसे दो, तथा क्षीरस्रवी, मधुस्रवी, अमृतस्रवी और सर्पिस्रवी ऐसे चार, इसप्रकार क्रमसे रसऋद्धिके छह भेद हैं ॥ १०७७ ॥ जिस शक्तिसे दुष्कर तपसे युक्त मुनिके द्वारा ' मर जाओ' इसप्रकार कहनेपर जीव सहसा मर जाता है, वह आशीविष नामक ऋद्धि कही जाती है ॥ १०७८ ॥ जिस ऋद्धिके बलसे रोषयुक्त हृदयवाले महर्षिसे देखा गया जीव सर्पद्वारा काटे गयेके समान मर जाता है, वह दृष्टिविष नामक ऋद्धि है ॥ १०७९ ॥ . जिससे हस्ततलपर रखे हुए रूखे आहारादिक तत्काल ही दुग्धपरिणामको प्राप्त हो जाते हैं, वह क्षीरस्रवीऋद्धि कही जाती है ॥ १०८० ॥ ___ अथवा, जिस ऋद्धिसे मुनिओंके वचनोंके श्रवणमात्रसे ही मनुष्य-तिर्यंचोंके दुःखादिक शान्त हो जाते हैं, उसे क्षीरस्रवीऋद्धि समझना चाहिये ॥ १०८१ ॥ __ जिस ऋद्धिसे मुनिके हाथमें रखे गये रूखे आहारादिक क्षणभरमें मधुररससे युक्त हो आते हैं, वह मध्वास्रवऋद्धि है ॥ १०८२ ॥ १ द ब णिविसंते. २ द ब यदा. ३ द खीरमुहु. ४ द ब निक्खित्ताणं. ५ द व रादियाण. ६ ब समण. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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