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________________ तिलोयपण्णत्ती घार्णिदियदणाणावरणाणं वीरियंतरायाए । उक्कस्लक्ख उवसमे उदिदंगोवंगणामकम्मम्मि ॥ ९९१ घाणुकस्सखिदीदो बाहिं संखेजजोयणगदाणिं' । जं बहुविधगंधाणिं तं घायदि दूरघाणत्तं ॥ ९९२ | दूरघाणत्तं गदं । २७४ ] सोबिंदियसुदणाणावरणाणं वीरियंतरायाए । उक्कस्सक्खउवसमे उदिदंगोवंगणामकम्मम्मि ९९३ सोढुक्कस्सखिदीदो बाहिरसंखेज्जजोयणपएसे । चेट्टंताणं माणुसतिरियाणं बहुवियप्पाणं ॥ ९९४ भक्खर अणक्रम बहुविहसदे विसेससंजुत्ते । उप्पण्णे आयण्णइ जं भणिअं दूरसवणत्तं ॥ ९९५ । दूरसवणत्तं गदं । रूविंदियसुदणाणावरणाणं वीरिअंतरायाए । उक्कत्सक्खडवसमे उदिदंगोवंगणामकम्मम्मि ॥ ९९६ रूउक्कस्सखिदीदो बाहिं संखेजजोयणठिदाई । जं बहुविहृदव्बाई देक्खड़ तं दूरदरिसिणं नाम ।। ९९७ | दूरदरिसिणं गदं । रोहिणिपहुदीण महाविजाणं देवदाउ पंच सया । अंगुटुपसेणाई खुद्दअविजाण सत्त सया ॥ ९९८ एत्तूण पेसणाई मग्गंते दसमपुव्वपढणम्मि । णेच्छंति संजमंता ताओ जे ते अभिण्णदसवी ॥ ९९९ ( भुवणेसु सुपसिद्धा विज्ञाहरसमणणामपज्जाया । ताणं मुणीण बुद्धी दसपुथ्वी णाम बोडवा ॥ १००० | दसपुवित्तं गदं । [ ४. ९९१ घ्राणेन्द्रियावरण, श्रुतज्ञानावरण और वीर्यान्तरायका उत्कृष्ट क्षयोपशम तथा अंगोपांग नामकर्मका उदय होनेपर घ्राणेन्द्रियके उत्कृष्ट विषयक्षेत्र से बाहिर संख्यात योजनोंमें प्राप्त हुए प्रकारके गन्धों को सूंघना इसे दूरघ्राणत्व कहते हैं ॥ ९९१-९९२ ॥ दूरप्राणत्वऋद्धि समाप्त हुई । श्रोत्रेन्द्रियावरण, श्रुतज्ञानावरण और वीर्यान्तरायका उत्कृष्ट क्षयोपशम तथा अंगोपांग नामकर्मका उदय होने पर श्रोत्रेन्द्रियके उत्कृष्ट विषयक्षेत्र से बाहिर संख्यात योजनप्रमाण क्षेत्र में स्थित-रहनेवाले बहुत प्रकारके मनुष्य और तिर्यञ्चों के विशेषतासे संयुक्त अनेक प्रकारके अक्षरानक्षरात्मक शब्दों के उत्पन्न होनेपर उनका श्रवण करना, इसे दूरश्रवणत्व कहा गया है ।। ९९३-९९५ ॥ दूरश्रवणत्वऋद्धि समाप्त हुई चक्षुरिन्द्रियावरण, श्रुतज्ञानावरण और वीर्यान्तरायका उत्कृष्ट क्षयोपशम तथा अंगोपांग नामकर्मका उदय होनेपर चक्षुरिन्द्रियके उत्कृष्ट विषयक्षेत्र से बाहिर संख्यात योजनों में स्थित बहुत प्रकारके द्रव्योंको देखना, यह दूरदर्शित्वऋद्धि है । ९९६–९९७ ॥ दूरदर्शित्वऋद्धि समाप्त हुई । दशवें पूर्वके पढ़ने में रोहिणीप्रभृति महाविद्याओं के पांचसौ और अंगुष्ठप्रसेनादिक (- प्रश्नादिक) क्षुद्रविद्याओंके सातसौ देवता आकर आज्ञा मांगते हैं। इस समय जो महर्षि जितेन्द्रिय होने के कारण उन विद्याओंकी इच्छा नहीं करते हैं, वे 'विद्याधरश्रमण' इस पर्यायनामसे भुवन में प्रसिद्ध होते हुए अभिन्नशपूर्वी कहलाते हैं । उन मुनियों की बुद्धिको दशपूर्वी जानना चाहिये || ९९८ - १००० ॥ दशपूर्विश्वऋद्धि समाप्त हुई । १ ब जोयणगदाणं. २ द ब गंधाणं. ३ द ब अक्खअविजाण. ४ द ब नं. ५ द ब दसपुव्वी गर्द. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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