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________________ –४. ९९० ] चउत्थो महाधियाये [ २७३ णियमेण अणियमेण य जुगवं एगस्स बीजसहस्स । उवरिमहेटिमगंथं जो बुज्झइ उभयसारी सा ॥ ९८३ ।उभयसारी गई। । एवं पदाणुसारी गई। सोदिदियेसुदणाणावरणाणं वीरियंतरायाए । उक्कस्सक्खउवसमे उदिदंगोवंगणामकम्मम्मि ॥ ९८४ सोदुक्कस्सखिदीदो बाहिं संखेजजोयणपएसे । संठियणरतिरियाणं बहुविहसद्दे समुटुंते ॥ ९८५ अक्खरअणक्खरमए सोदूणं दसदिसासु पत्तेक्कं । जे दिजदि पडिवयणं तं चिय संभिण्णसोदित्तं ॥ ९८६ ... ।संभिण्णसोदित्तं गदं । जिभिदियसुदणाणावरणाणं वीरियंतरायाए । उक्कस्सक्खउवसमे उदिदंगोवंगणामकम्मम्मि ॥ ९८७ . . जिब्भुक्कस्सखिदीदो बाहिं संखेजजोयणठियाणं । विविहरसाणं सादं जं जाणइ दूरसादित्तं ।। ९८८... । दूरसादित्तं गदं । पासिंदियसुदणाणावरणाणं वीरियंतरायाए । उक्कस्सक्खउवसमे उदिदंगोवंगणामकम्मम्मि ॥ ९८९ . ... .. पासुक्कस्सखिदीदो बाहिं संखेजजोयणठियाणि । अट्टविहप्पासाणि जे जाणइ दूरपासत्तं ॥ ९९० ।दूरपासं गदं। ___ जो बुद्धि नियम अथवा अनियमसे एक बीजशब्दके ( ग्रहण करनेपर ) उपरिम और अधस्तन ग्रन्थको एक साथ जानती है, वह उभयसारिणी बुद्धि है ॥ ९८३ ॥ उभयसारिणी बुद्धि समाप्त हुई। इसप्रकार पदानुसारिणी बुद्धिका कथन समाप्त हुआ। श्रोत्रेन्द्रियावरण, श्रुतज्ञानावरण और वीर्यान्तरायका उत्कृष्ट क्षयोपशम तथा अंगोपांग नामकर्मका उदय होनेपर श्रोत्र इन्द्रियके उत्कृष्ट क्षेत्रसे बाहिर दशों दिशाओंमें संख्यात योजनप्रमाण क्षेत्रमें स्थित मनुष्य एवं तिर्यञ्चोंके अक्षरानक्षरात्मक बहुत प्रकारके उठनेवाले शब्दोंको सुनकर जिससे प्रत्युत्तर दिया जाता है, वह संभिन्नश्रोतृत्व नामक बुद्धिऋद्धि कहलाती है ॥ ९८४-९८६॥ संभिन्न श्रोतृत्वबुद्धिऋद्धि समाप्त हुई। जिह्वेन्द्रियावरण, श्रुतज्ञानावरण और वीर्यान्तरायका उत्कृष्ट क्षयोपशम तथा अंगोपांग नामकर्मका उदय होनेपर जिह्वा इन्द्रियके उत्कृष्ट विषयक्षेत्रसे बाहिर संख्यात योजनप्रमाण क्षेत्रमें स्थित विविध रसोंके स्वादके जाननेको दूरास्वादित्वऋद्धि कहते हैं । ९८७-९८८ ।। दूरास्वादित्वऋद्धि समाप्त हुई ।। स्पर्शनेन्द्रियावरण, श्रुतज्ञानावरण और वीर्यान्तरायका उत्कृष्ट क्षयोपशम तथा अंगोपांग नामकर्मका उदय होनेपर स्पर्शनेन्द्रियके उत्कृष्ट विषयक्षेत्रसे बाहिर संख्यात योजनोंमें स्थित आठ प्रकारके स्पोंको जान लेना, यह दूरस्पर्शत्वऋद्धि है ॥ ९८९-९९० ॥ दूरस्पर्शत्वऋद्धि समाप्त हुई । १ द ब जो, २ [गदा ]. ३ ब सो दिंदय. TP. 35 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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