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________________ -४.९४४] चउत्थो महाधियारो [२६७ जक्खीयो चक्केसरिरोहिणिपण्णत्तिवजसिखलया। वजंकुसा य भष्पदिचक्केसरिपुरिसदत्तो य ॥ ९३. मणवेगाकालीमो तह जालामालिणी महाकाली । गउरीगंधारीओ वेरोटी सोलसा अणंतमदी ॥ ९३८ माणसिमहमाणसिया जया य विजयापराजिदामो य । बहुरूपिणिकुंभंडी पउमासिद्धायिणीओ त्ति ॥ ९३९ ।। वसन्ततिलकम्पीऊसणिज्झरणिहं जिणचंदवाणि सोऊण बारस गणा णिभकारएसु। णि अणतगुणसेढिविसोहिअंगा छेदंति कम्मपडलं खु असंखसेणि॥ ९४. इंद्रवज्राभत्तीए भासत्तमणा जिणिदपायारविंदेस णिवेसियत्था । णादीदकालं ण पयमाणं णो भाविकालं पविभावयंति ॥ ९४१ एवंपभावा भरहस्स खेत्ते धम्मप्पमुत्तिं परमं दिसंता । सव्वे जिणिदा वरभव्वसंघस्सप्पोस्थिदमोक्खसुहाइ देंतु ॥ ९४२ पुज्वाण शुक्कलक्खं वासाणं ऊणिदं सहस्सेण । उसहजिणिंदे कहियं केवलिकालस्स परिमाणं ॥ ९४३ उसह पुख्व ९९९९९ पुग्वंग ८३९९९९९ वस्स ८३९९०००। बास्सवच्छरसमधियपुग्वंगविहीणपुम्वइ गिलक्खं । केवलिकालपमाण अजियजिणिदे मुणेदव्वं ॥ ९४४ अजिय पुष्व ९९९९९ पुष्वंग ८३९९९९८ वस्स ८३९९९०८ । चक्रेश्वरी, रोहिणी, प्रज्ञैप्ति, वज्रश्रृंखला, वज्रांकुशा, अंप्रतिचक्रेश्वरी, पुरुषदत्ता, मनोवेगा, कोली, बालामालिनी, महाकाली, गौरी, गांधारी, "वैरोटी, सोलसा अनन्तमती, मानसी, महामानसी, जया, विजया, अपराजिता, बहुरूपिणी, कूष्माण्डी, पनौँ और सिद्धायिनी, ये यक्षिणियां भी क्रमशः ऋषभादिक चौबीस तीर्थंकरोंके समीपमें रहा करती हैं ॥ ९३७-९३९ ॥ जैसे चन्द्रमासे अमृत झरता है उसीप्रकार खिरती हुई जिनभगवान्की वाणीको अपने कर्तव्यके वारेमें सुनकर वे भिन्न भिन्न जीवोंके बारह गण नित्य अनन्तगुणश्रेणीरूप विशुद्धिसे संयुक्त शरीरको धारण करते हुए असंख्यातश्रेणीरूप कर्मपटलको नष्ट करते हैं ॥ ९४० ॥ जिनका मन भक्तिमें आसक्त है और जिन्होंने जिनेन्द्रदेवके पादारविन्दोंमें आस्था ( विश्वास) को रक्खा है ऐसे भव्य जीव अतीत, वर्तमान और भावी कालको भी नहीं जानते हैं ॥ ९४१ ॥ उपर्युक्त प्रभावसे संयुक्त वे सब तीर्थंकर भरतक्षेत्रमें उत्कृष्ट धर्मप्रवृत्तिका उपदेश देते हुए उत्तम भव्यसमूहको आत्मासे उत्पन्न हुए मोक्षसुखोंको प्रदान करें ॥ ९४२ ॥ भगवान् ऋषभ देवके केवलिकालका प्रमाण हजार वर्ष कम एक लाख पूर्व कहा गया है ॥ ९४३ ॥ ऋषभ पूर्व ९९९९९, पूर्वांग ८३९९९९९, वर्ष ८३९९००० । अजितनाथ तीर्थंकरके केवलिकालका प्रमाण बारह वर्ष और एक पूर्वाग कम एक लाख पूर्व जानना चाहिये ॥ ९४४ ॥ अजित पूर्व ९९९९९, पूर्वांग, ८३९९९९८, वर्ष ८३९९९८८ १ ब पुरुसदत्ती. २ द अंकारएसु. ३ द धम्मप्पमत्तिं. ४ व संघस्सुप्पोस्थिदंमोक्ष. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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