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________________ -४. ४२६ ] उत्थो महाधियारो [ १९५ भवाभय्या छस्सम्मत्ता उवसेमियखइयसम्मत्ता । तह वेदयसम्मत्तं सासणमिस्सा य मिच्छो य ॥ ४१८ सणी जीवा होंति हु दोणि य आहारिणो अणाद्दारा । सायारणायारा उवजोगा होंति नियमेणं ॥ ४१९ मंदकसायेण जुदा उदयागदसत्थपयडिसंजुत्ता । विविधविणोदासत्ता णरतिरिया भोगजा होंति ॥ ४२० पलिदोवमट्टमंसे किंचुणे तदियकालअवसेसे । पढमो कुलकरपुरिसो उप्पज्जदि पडिसुदी सुवण्णणिहो ॥ ४२१ एकसहस्सं अडसयसहिदं चावाणि तस्स उच्छेहो । पल्लस्स दसमभागो आऊ देवी सपहा णाम ॥ ४२२ १८०० प १३ १० णभगजघंटणिभाणि चंदाइच्चाण मंडलाणि तदा । आसाढपुष्णिमाए दहूणं भोगभूमिजा सब्वे ॥ ४२३ आर्कसिकमदिघोरं उप्पादं जादमेदमिदि मैत्ता । पज्जाउला पकंपं पत्ता पवणेण पहदरुक्खो व्व ॥ ४२४ पदिसुदिणामो कुलकरपुरिसो एदाण देइ अभयगिरं । तेभंगा कालवसा संजादा मंदकिरणोघा ॥ ४२५ तक्कारणेण ए६ ससहररविमंडलाणि गयणम्मि । पयडाणि णत्थि तुम्हे एदाण दिसाए भयहेदू ॥ ४२६ अवस्था में मिथ्यात्वादि चारों गुणस्थानोंमें तीन शुभ लेशायें; भव्यत्वैकी अपेक्षा भव्य और अभव्य; सम्यक्त्वकी अपेक्षा औपशमिक सम्यक्त्व, क्षायिक सम्यक्त्व, वेदक सम्यक्त्व, सासादन, मिश्र और मिथ्यात्व ये छों सम्यक्त्व; संज्ञाकी अपेक्षा संज्ञी; और आहारमार्गणाकी अपेक्षा आहारक एवं अनाहारक दोनों ही होते हैं । इनके साकार ( ज्ञान ) और अनाकार ( दर्शन ) दोनों ही उपयोग नियमसे होते हैं ॥ ४१४ - ४१९॥ भोगभूमि मनुष्य और तिर्यंच मन्द कषायसे युक्त, उदयमें आयी हुई पुण्यप्रकृतियोंसे संयुक्त, एवं विविध प्रकार के विनोदोंमें आसक्त होते हैं ।। ४२० ॥ कुछ कम एक पल्योपमके आठवें भागमात्र तृतीय कालके शेष रहनेपर सुवर्णके सदृश प्रभासे युक्त प्रतिश्रुति नामक प्रथम कुलकर पुरुष उत्पन्न होता है || ४२१ ॥ उसके शरीरका उत्सेध एक हजार आठसौ धनुष, आयु पल्यके दशवें भागप्रमाण, और देवी स्वयंप्रभा नामक थी ॥ ४२२ ॥ उत्सेध दं. १८००, आयु प० । उस समय समस्त भोगभूमिज आषाढ़ मासकी पूर्णिमाको आकाशरूपी हाथी के घंटे के सदृश चन्द्र और सूर्य मण्डलोंको देखकर 'यह कोई आकस्मिक महा भयानक उत्पात हुआ है ' ऐसा समझकर व्याकुल होते हुए वायुसे आहत वृक्षके समान प्रकम्पनको प्राप्त हुए ॥ ४२३-४२४॥ प्रतिश्रुति नामक कुलकर पुरुषने उनको निर्भय करनेवाली वाणीसे बतलाया कि कालवश अब तेजांग जातिके कल्पवृक्षोंके किरणसमूह मंद पड़ गये हैं, इस कारण इस समय आकाशमें चन्द्र और सूर्यके मण्डल प्रगट हुए हैं । इनकी ओरसे तुम लोगोंको भयका कोई कारण नहीं है ॥ ४२५-४२६ ॥ १ द चैवसमिय २ द ब सयंपहो. ३ द प १० । । ४ द ब विभाणं. ५ द ब जादमोदमिदि. ६ द मदिसुदि. ७ द व यहि. ८ द व भयदेहो. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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