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________________ १८८] तिलोयपण्णत्ती . [ ४. ३५२ वहीतहगुच्छलदुम्भवाणे सोलससहस्सभेदाणं । मालंगदुमा देति हु कुसुमाणं विविहमालामो ॥ १५२ तेजंगा मजसंदिणदिणयरकोडीण किरणसंकासा । णक्खत्तचंदसूरप्पहुदीणं कतिसंहरणौ ॥ ३५३ ते सब्वे कम्पदुमा ण वणफ्फदी णो वेंतरी सम्वे । णरि पुढविसरूवा पुण्णफलं देति जीवाणं ॥ ३५४ गीदरवेसुं सोतं रूवे चक्खू सुसोरभे पाणं । जीहा विविहरसेसुं पासे पासिदिय रमह॥३५५ इय भण्णोण्णासत्ता ते जुगला वर णिरंतरे भोगे । सुलभे वि ण संतित्ति इंदियविसएसु पार्वति ॥ ३५६ जुगलाणि अणंतगुणं भोग चकहरभोगयोहादो । भुजंति जावं आउं कदलीघादेण रहिदाणि ॥ ३५७ कप्पदुमदिण्णवत्थु घेत्तूण विकुम्वणाय बहुदेहे । कादूणं ते जुगला अणेयभोगाई भुंजंति ॥ ३५८ पुरिसा वरमउडधरा देविंदादो वि सुंदरायारा। अच्छरसरिसा इत्थी मणिकुंडलमंडियकोला ॥ ३५९ 'मटडं कुंडलहारा मेहलपालंबवम्हसुत्ताई । अंगदकडयप्पहुदी होंति सहावेण भाभरणा ॥ ३६० कुडलमंगदहारा मउ केयूरपट्टकच्याई । पालंबसुत्तणेउरदोमुहीमेहलासिछेरियाभो ॥ ३६१ मालांग जातिके कल्पवृक्ष वल्ली, तरु, गुच्छ और लताओंसे उत्पन्न हुए सोलह हजार भेदरूप पुष्पोंकी विविध मालाओंको देते हैं ।। ३५२ ॥ तेजांग जातिके कल्पवृक्ष मध्यंदिनके करोडों सूर्योकी किरणोंके समान होते हुए नक्षत्र, चन्द्र और सूर्यादिककी कान्तिका संहरण करते हैं ॥ ३५३ ॥ ये सब कल्पवृक्ष न तो वनस्पति ही हैं और न कोई व्यन्तर देव हैं। किन्तु विशेषता यह है कि ये सब पृथिवीरूप होते हुए जीवोंको उनके पुण्य कर्मका फल देते हैं ॥ ३५४ ॥ ___ भोगभूमिजोंकी श्रोत्र इन्द्रिय गीतरवोंमें, चक्षु रूपमें, घ्राण सुन्दर सौरभमें, जिहा विविध प्रकारके रसोंमें, और स्पर्शन इंद्रिय स्पर्शमें रमण करती है ॥ ३५५ ॥ इसप्रकार परस्परमें आसक्त हुए वे युगल नर-नारी उत्तम भोगसामग्रीके निरन्तर सुलभ होनेपर भी इन्द्रियविषयोंमें तृप्तिको नहीं पाते ॥ ३५६ ॥ ये भोगभूमिजोंके युगल कदलीघातमरणसे रहित होते हुए आयुपर्यन्त चक्रवर्तीके भोगसमूहकी अपेक्षा अनन्तगुणे भोगको भोगते हैं ॥ ३५७ ॥ ___ वे युगल कल्पवृक्षोंसे दी गई वस्तुओंको ग्रहण करके और विक्रियासे बहुतसे शरीरोंको बनाकर अनेक प्रकारके भोगोंको भोगते हैं ॥ ३५८ ॥ वहांपर उत्तम मुकुटको धारण करनेवाले पुरुष इन्द्रसे भी अधिक सुन्दराकार और मणिमय कुण्डलोंसे विभूषित कपोलोंवाली स्त्रियां अप्सराओंके सदृश होती हैं ॥ ३५९ ॥ मुकुट, कुण्डल, हार, मेखला, प्रालंब, ब्रह्मसूत्र, अंगद और कटक इत्यादिक आभूषण मोगभूभिजोंके स्वभावसे ही हुआ करते हैं ॥ ३६० ॥ भोगभूमिमें कुण्डल, अंगदै, हारे, मुकुर्ट, केयूर, प?, ( भालपट्ट ), कटक, प्रालय, सूत्र, (ब्रह्मसूत्र), नूपुर, दो मुद्रिकाएँ, मेखली, अॅसि ( करवाल ), छुरी, अवेयक और कर्णपूर ,ये सोलह १ द ब 'लदुष्मवण. २ द व संहरणं. ३ द वणप्पदीणो ण वेतरा. ४ द गवरी. ५ दबभागे. २द भोगयाहादो. ७ द व जाद. ८ दर वरमोड ९द सुछुरियाभो. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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