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तिलोयपण्णत्ती
[४. २१२
पंचसया तेवीसं अट्रहदो ऊणतीसभागा य । दक्खिणदो भागच्छिय गंगा गिरिजिभियं पत्ता ।। २१२
५२५११८
हिमवंतयंतमणिमयवरकूडमुहम्मि वसहरूवम्मि ।
पविसिय णिवलइ धारा दसजोयणवित्थरा य ससिधवला ॥ २१३ छजोयणेककोसा पणालियाए हुवेदि विक्खंभो। आयामो बे कोसा तेत्तियमेत्तं च बहलत्तं ॥२१४
६। को १ । को २ । को २। सिंगमुहकण्णजिंहालोयणभूआदिएहि गोसरिसो' । वसहो त्ति तेण भण्णइ रयणामरजीहिया तत्थ ॥ २१५ पणुवीस जोयणाणि हिमवंते तत्थ अंतरेणं । दसजोयणवित्थारे गंगाकुंडम्मि णिवसदे गंगा ॥ २१६ पणुवीसजोयणाई धारापमुहम्मि होदि विक्खंभो । सम्गायणिकत्तारो एवं णियमा परूवेदि ॥ २१७ २५।
पाठान्तरम्। जोयणसट्रीरुदं समवई अस्थि तत्थ वरकुंड । दसजीयणउच्छेहं मणिमयसोवाणसोहिल्लं ॥ २१८
६०।१०।
पांचसौ तेईस योजन और आठसे गुणित ( उन्नीस ) अर्थात् एकसौ बावनमेंसे उनतीस भागप्रमाण दक्षिणसे आकर गंगा नदी पर्वतके तटपर स्थित जिविकाको प्राप्त होती है ।। २१२ ॥
१०५२ १ २ - ६ = ५२३,३३३ ।
हिमवान् पर्वतके अन्तमें वृषभाकार मणिमय उत्तम कूटके मुखमें प्रवेशकर चन्द्रमाके समान धवल और दश योजन विस्तारवाली गंगाकी धारा नीचे गिरती है ॥ २१३ ॥
उस प्रणालीका विस्तार छह योजन और एक कोस, लंबाई दो कोस, और बाहल्य भी इतना ही अर्थात् दो कोस है ॥ २१४ ॥ विष्कंभ यो. ६ को. १, आयाम को. २, बाहल्य को. २ ।
वह कूटमुख सींग, मुख, कान, जिह्वा, लोचन और भ्रकुटी आदिकसे गौके सदृश है, इसीलिये उस रत्नमय जिह्निका ( जृम्भिका ) को 'वृषभ' कहते हैं ।। २१५ ॥
वहांपर गंगानदी पच्चीस योजन हिमवान् पर्वतको छोड़कर दश योजन विस्तारवाले गंगाकुण्डमें गिरती है ॥ २१६ ॥
धाराके प्रमुखमें गंगा नदीका विस्तार पच्चीस योजन है। सग्गायणीके कर्ता इसप्रकार नियमसे निरूपण करते हैं। २१७ ॥२५ ।
पाठान्तर । ___ वहांपर साठ योजन विस्तारवाला, समवृत्त, दश योजन ऊंचा और मणिमय सीढ़ियोंसे शोभायमान उत्तम कुण्ड है ।। २१८ ॥ ६० । १० ।
१ द ब अट्ठाहिदा. २ द ब २९ ।. ३ब तत्तियमेत्तं. ४ द ब भूदाओएहि गासरिसो. ५ द पणवीस, ६द ब गंगाकूडम्मि. ७ ब-पुस्तके द्विरुक्ता.८ द सवाणिकत्ताणयवंण्णियमा, बसव्वाणिकत्ताणय एवं णियमा.
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