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________________ -४. १७१ ] चउत्यो महाधियारो १६१ एसा जिणिंदप्पडिमा जणाणं झाणति णिचं सुबहुप्पयारं । भावाणुसारेण अणंतसोक्खं णिस्सेयसं अन्भुदयं च देदि ॥ १६३ भरहादिसु कूडेसुं अट्ठसु वेंतरसुराण पासादा । वररयणकंचणमया वेदीगोउरदुवारकयसोहा ॥ १६४ उजाणेहि जुत्ता मणिमयसयणासणेहिं परिपुण्णा । णचंतधयवडाया बहुविहवण्णा विरायंति ॥ १६५ बहुदेवदेविसहिदा वेंतरदेवाण होति पासादा । जिणवरभवणपवण्णिदपासादसरिच्छरुंदादी ॥ १६६ को । ।३। भरहे कूडे भरहो खंडपवादम्मि णहमालसुरो । कूडम्मि माणिभद्दे अहिवइदेवो म माणिभद्दो त्ति ॥ १६७ वेदडकुमारसुरो वेयडकुमारणामकूडम्मि' । चेटेदि पुण्णभद्दो अहिणाहो होइ पुण्णभद्दम्मि ॥ १६८ तिमिसगुहम्मि य कूडे देवो णामेण वसदि कदमालो । उत्तरभरहे कूडे अहिवइदेवो भरहणामो ॥ १६९ कूडम्मि य वेसमणे वेसमणो णाम अहिवरो देवो । दसधणुदेहुच्छेहाँ सम्वे ते एकपल्लाऊ ॥ १७० बेगाऊविस्थिण्णा दोसु वि पासेसु गिरिसमायामा । वेयडुम्मि गिरिंदे वणसंडा होंति भूमितले ॥ १७१ यह जिनेन्द्रप्रतिमा उसका ध्यान करनेवाले जीवोंको उनके भावोंके अनुसार नित्य अनन्तसुखस्वरूप मोक्ष एवं नानाप्रकारके अभ्युदयको भी देती है ।। १६३ ॥ ___ भरतादिक आठ कूटोंपर व्यन्तर देवोंके उत्तम रत्न और सुवर्णसे निर्मित, वेदी एवं गोपुरद्वारोंसे शोभायमान, उद्यानोंसे युक्त, मणिमय शय्या और आसनोंसे परिपूर्ण, नाचती हुई ध्वजा-पताकाओंसे सुशोभित, और अनेक वर्णवाले प्रासाद विराजमान हैं ॥ १६४-१६५ ॥ ये व्यन्तर देवोंके प्रासाद बहुतसे देव-देवियोंसे सहित हैं। जिन भवनोंके वर्णनमें जो प्रासादों के विस्तारादिका प्रमाण बतलाया जाचुका है, उसीके समान इनका भी विस्तारादिक जानना चाहिये ॥ १६६ ॥ दीर्घता १, विष्कंभ ३, उत्सेध ३ कोस । __ भरत कूटपर भरत नामक देव, खण्डप्रपात कूटपर नृत्यमाल देव, और माणिभद्र कूटपर माणिभद्र नामक अधिपति देव है ॥ १६७ ॥ ___ वैताढ्यकुमार नामक कूटपर वैताब्यकुमार देव और पूर्णभद्र कूटपर पूर्णभद्र नामक अधिपति देव स्थित है ॥ १६८॥ तिमिस्रगुह कूटपर कृतमाल नामक देव और उत्तरभरत कूटपर भरत नामक अधिपति देव रहता है ॥ १६९।। वैश्रवण नामक कूटपर वैश्रवण नामक अधिनायक देव है। ये सब देव दश धनुष ऊंचे शरीरके धारक और एक पल्योपमप्रमाण आयुसे युक्त हैं ॥ १७० ॥ ___ वैताढ्य पर्वतके भूमितलपर दोनों पार्श्वभागोंमें दो गव्यूति विस्तीर्ण और पर्वतके बराबर लंबे वनखण्ड हैं ॥ १७१ ।। १ द जिणाण. २ व देहि. ३ द व विंदपवादम्मि. ४ द ब सुरा. ५ द कूटम्मि. ६ द व अहिणामो. ७ दबदेहुच्छेहो. ८ दबभूमितलिं. TP. 21 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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