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[११] चिता प्रशस्ता प्रशस्तिः समाप्ता ॥ संवत् १८०३ का मिती आसोज वदि १ लिषत मया सागर श्री सवाई जयपुरनगरे । श्रीरस्तु ॥ कल्पं । इसके पश्चात् किसी दूसरे या हलके हाथसे लिखा हुआ वाक्य निम्नप्रकार है-पोथी तैलोक्यप्रज्ञप्तीकी भट्टारजी नै साधन करवी नै दीनी दुसरी प्रति मीती श्रावण सुदी १३ संवत १९५९ । इस प्रतिके प्रथम ८ पत्रोंके हांसियेपर कुछ शब्दों व पंक्तिखण्डोंकी संस्कृत छाया है । ५वें पत्रपर टिप्पणमें त्रैलोक्यदीपकसे एक पद्य उद्धृत है । आदिके कुछ पत्र शेष पत्रोंकी अपेक्षा अधिक मलिन हो गये हैं।
लिपिकी त्रुटियां उक्त दोनों प्रतियोंमें पाई जाती हैं । अन्य देवनागरी प्रतियोंके समान इन प्रतियोंमें भी झ और ब्भ तथा च्छ और स्थ में भ्रान्ति पाई जाती है, तथा च और व एवं प, म, और व में सरलतासे भेद नहीं मालूम होता । द में ओ का रूप उ के ऊपर एक खड़ी रेखा देकर अथवा विना रेखाके पाया जाता है। अनुस्वारचिहकी उपस्थिति या अनुपस्थितिके सम्बन्धमें प्रतियोंमें कोई एकरूपता नहीं पायी जाती। कहीं कहीं आवश्यकता न होने पर भी अनुस्वारचिह्न पाया जाता है। जैसे-देवंम्मि, वंदंइ, आदि । दोनों ही प्रतियोंमें गद्यभाग अत्यन्त भ्रष्ट है, और गाथायें भी यत्र तत्र भ्रष्ट पाठोंसे पूर्ण हैं । उनके पत्रोंपर संदृष्टियोंके स्थान तथा संख्याओंके सम्बन्धमें बड़ी विभिन्नता पायी जाती है । द्वित्वरूप वर्ण तथा अनुस्वारके पश्चात् आये हुए वर्णमें बहुधा विपरिवर्तन पाया जाता है तथा ई और ई एवं अं और आ में भी विभ्रान्ति पायी जाती है । दीर्घ और हस्व स्वरोंकी भी दोनों प्रतियोंमें यत्र तत्र भ्रान्ति पायी जाती है। पादान्त स्वर दीर्घ लिखा गया है, क्योंकि उसका उच्चारण दीर्घ होता है । कहीं कहीं किसी प्रतिमें औ भी सुरक्षित पाया जाता है । कहीं कहीं द और ध, त और थ, प और फ, च और छ एवं य और ए में विपरिवर्तन हुआ है । कुछ गद्यभागमें गणनांक पाये जाते हैं मानों वे गाथायें हों । ये विशेषतायें दोनों प्रतियोंमें पायी जाती हैं।
तिलोयपण्णत्तिका प्रस्तुत संस्करण इन्हीं दो हस्तलिखित प्रतियों के आधारसे तयार किया गया है । इनमें जो पाठभेद पाये गये हैं वे पृष्ठके नीचे टिप्पणमें दे दिये गये हैं। इन दो प्रतियोंके अतिरिक्त तीन और प्रतियां ऐसी ह , जिनका आंशिक व यथावसर उपयोग मुख्यतः द और ब प्रतियोंके संदेहात्मक व अनिश्चित पाठोंका निर्णय करनेके लिये किया गया है
(१) यह जैन सिद्धान्त भवन आराकी आधुनिक कागजपर लिखी गई प्रतिकी नकल है। इसमें केवल प्रथम दो महाधिकार हैं । यह प्रति हमें अलीगंजके पं. कामताप्रसाद जी जैन द्वारा प्राप्त हुई थी, जो सधन्यवाद वापिस कर दी गई।
(२) जब प्रतिमिलानका कार्य चालू था तब दिल्लीके श्रीमान् पनालालजी अग्रवाल ने हमारे पास तिलोयपण्णत्तिकी एक प्रतिके प्रथम १०० पत्र भेजनेकी कृपा की । यह प्रति श्री दि. जैन सरस्वती भवन पंचायती मंदिर, मसजिद खजूर, दिल्ली, के नं. ३१ की है। इस कागजकी
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