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प्रस्तावना
१ ग्रन्थपरिचय व सम्पादनका उपक्रम
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दिवस (सं. यतिवृषभ ) कृत तिलोयपण्णत्ति (सं. त्रिलोकप्रज्ञप्ति ) प्राकृतमें करणानुयोगका एक प्राचीन ग्रन्थ है । इस ग्रन्थ में प्रसंगवश जैनसिद्धान्त, पुराण व इतिहाससम्बन्धी भी बहुतसी वार्ता पायी जाती है । भारतवर्षका प्राचीन जगद्विवरण तथा जैनियोंका लोकसम्बन्धी निरूपण बड़ा शुष्कप्राय विषय है । वह ऐसी पारिभाषिक बारीकियोंसे भरा है जो आधुनिक वैज्ञानिक टकोण के अनुकूल भी नहीं हैं, तथा जिनके लिये भारतीय विद्याविशारदोंको कोई विशेष आकर्षण नहीं है | इस विषयमें रुचि रखनेवाले विद्वानोंकी संख्या अत्यन्त अल्प है, और जहां तक हमें ज्ञात है केवल किरफेलरचित कॉस्मोयैफी डेअर इन्डेअर ( बान, लीपज़िग, १९२०, पृ. २०८ - ३४० ) ही एक ऐसा प्रामाणिक ग्रन्थ है जिसमें जैन लोक विवरणका व्यवस्थितरूपसे प्रतिपादन किया गया है । जैन धर्म और जैन साहित्य के इतिहासका पूरा ज्ञान प्राप्त करनेके लिये लोकविवरणसम्बन्धी ग्रन्थ उतने ही महत्वपूर्ण ह जितने कोई भी अन्य ग्रन्थ हो सकते हैं । त्रिलोकप्रज्ञप्ति अनेक कारणोंसे महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है । वह दिगम्बर साहित्य के प्राचीनतम श्रुतांग से सम्बन्ध रखता है । इसमें जो विषयविवरण हैं, मतान्तर दिये गये हैं, तथा उपदेशके व्युच्छिन्न हो जानेका बार बार उल्लेख किया गया है, उनसे यह ग्रन्थ निश्चयतः प्राचीन प्रतीत होता है । इसके कर्ता यतिवृषभने इस ग्रन्थ में परम्परागत प्राचीन ज्ञानका संग्रह किया है, न कि किसी नवीन विषयका । वे प्राचीन सम्माननीय ग्रन्थकार हैं । धवलामें इस ग्रन्थके विस्तृत उद्धरण पाये जाते हैं और पीछेके अनेक जैन ग्रन्थ इसके आधारसे बने प्रतीत होते हैं। इसकी प्राचीनता के कारण यह अर्धमागधी श्रुतांग ग्रन्थोंके साथ तुलनात्मक दृष्टिसे अध्ययन करने योग्य है, और अन्ततः भारतीय पुरातत्त्व, धर्म एवं भाषा के अध्येताओंके लिये इस ग्रन्थके विविध विषय और उसकी प्राकृत भाषा रोचकता से रहित नहीं हैं ।
यह सचमुच दुर्भाग्य की बात है कि ऐसा महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ अभीतक अप्रकाशित पड़ा रहा। जब तक विद्वानोंको किसी विषय की खोज प्रारम्भ करते समय तत्सम्बन्धी मौलिक ग्रन्थोंके, यदि पूर्णतया समालोचनात्मक दृष्टि से संपादित नहीं तो कमसे कम प्रामाणिकता से सम्पादित, संस्करण लब्ध न हों तब तक उस विषयसम्बन्धी नाना प्रकारके अध्ययनोंमें एक त्रुटि बनी रहती है । प्रारंभिक प्रयोगकी दृष्टिसे प्रस्तुत ग्रन्थका कुछ थोड़ासा भाग वर्तमान सम्पादकोंमेंसे एकने आरा से प्रकाशित होनेवाले जैन सिद्धान्तभास्कर नामक त्रैमासिक पत्रमें सम्पादित किया था जो अलग से भी प्रकाशित किया जा चुका है । ब्रह्मचारी जीवराज भाईकी दानशीलताको धन्य है कि जिसके द्वारा सम्पादक त्रिलोकप्रज्ञप्तिके प्रथम चार महाधिकारोंको मूलानुगामी हिन्दी अनुवाद के साथ जीवराज जैन ग्रन्थमाला के प्रथम ग्रन्थके रूपमें प्रस्तुत करने में सफल हुए ।
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