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-२. १९५] बिदुओ महाधियारो
[८३ अट्टत्तालं दुसयं तिसहस्सा जोयणाण मेघाए । पणवण्णसयाणि धणू उड़ेण पइण्णयाण विच्चालं ॥ १९१
३२४८ । दंड ५५०० । चउसट्टि छस्सयाणि तिसहस्सा जोयणाणि तुरिमाए । उणहत्तरीसहस्सा पणसयदंडा य णवभजिदा ॥ १९२
३६६४ । दंड ६९५०० ।
सत्ताणवदीजोयणचउदालसयाणि पंचमखिदीए । पणसयजुदछसहस्सा दंडेण पइण्णयाण विश्चालं ॥ १९३
४४९७ । दंड ६५०० । सट्टाणे विच्चालं एवं जाणिज तह परट्ठाणे । ज इंदयपरठाणे भणिदं तं यत्थ वत्तन्वं ॥ १९४
। एवं पइण्णयाण विद्यालं सम्मत्त । ॥ एवं णिवासखेत्तं सम्मत्तं ॥
घम्माए णारइया संखठिदाऊँ होति एदाणं । सेढीए गुणगारा विंदंगुलबिदियमूलकिंचणं ॥ १९५
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मेघा पृथिवीमें प्रकीर्णक बिलोंका ऊर्ध्वग अन्तराल तीन हजार दोसौ अड़तालीस योजन और पचवनसौ धनुष है ॥ १९१ ॥ ३२४८ यो. ५५०० दण्ड ।
चतुर्थ पृथिवीमें श्रेणीबद्ध बिलोंका अन्तराल तीन हजार छहसौ चौंसठ योजन और नौसे भाजित उनहत्तर हजार पांचसौ धनुषप्रमाण है ॥ १९२ ॥ ३६६४ यो. ६ ९५०० दण्ड ।
___पांचवीं पृथिवीमें प्रकीर्णक बिलोंका अन्तराल चवालीससौ सत्तानबै योजन और छह हजार पांचसौ धनुषप्रमाण है ॥ १९३ ॥ ४४९७ यो. ६५०० दण्ड ।
[छठी पृथिवीमें प्रकीर्णक बिलोंका अन्तराल छह हजार नौसौ छयानबै योजन और पचहत्तरसौ धनुष है ॥ १९३*१ ॥ ६९९६ यो. ७५०० दण्ड ।)
इसप्रकार यह प्रकीर्णक बिलोंका अन्तराल स्वस्थानमें समझना चाहिये । परस्थानमें जो इन्द्रकबिलोंका अन्तराल कहा जा चुका है, उसीको यहांपर भी कहना चाहिये ॥ १९४ ॥
इसप्रकार प्रकीर्णक बिलोंका अन्तराल समाप्त हुआ।
इसप्रकार निवासक्षेत्र समाप्त हुआ । धर्मा पृथिवीमें नारकी जीव संख्यात आयुके धारक हैं । इनकी संख्या निकालनेके लिये गुणकार घनांगुलके द्वितीय वर्गमूलसे कुछ कम है । अर्थात् इस गुणकारसे जगश्रेणीको गुणा करनेपर जो राशि उत्पन्न हो उतने नारकी जीव धर्मा पृथिवीमें विद्यमान हैं ॥ १९५ ॥
श्रेणी x घनांगुलके २ सरे वर्गमूलसे कुछ कम = धर्मा पृ. के नारकी ।
१द जोयणाणि. २ द. वत्यव्वं. ३ द संखठिदाओ.'
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