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________________ ७८.२] . ७८. साएयपुरीवण्णणपव्वं भोयणहरम्मि भत्तं, अलहन्तो भणइ कोवपज्जलिओ । सर्व डहामि गाम, तत्तो य विणिग्गओ गामा ॥ १०७ ॥ विहिसंजोएण तओ, पज्जलिओ हुयवहेण सो गामो। गामिल्लएहि घेत्त, छूढो अग्गीऍ सो पहिओ ॥ १०८ ॥ मरिऊण समुप्पन्नो, अह सो सूयारिणी नरवइस्स । तत्तो वि य कालगया, जाया अइवेयणे नरए ॥ १०९ ॥ नरयाओ समुत्तरिउं, उप्पन्ना तुज्झ नरवई माया । एसा वि य मित्तजसा, भग्गवघरिणी सुसीलमई ॥ ११० ॥ अह पोयणनयरवरे, वणिओ गोहाणिओ त्ति नामेणं । भुयवत्ता से महिला, मओ य सो तीऍ उत्पन्नो ॥१११॥ जायस्स उ भुयवत्ता, रइवद्धणकामिणी गुणविसाला । अह गद्दभाइपीडा, पुरभारुबहणयं चेव ॥ ११२ ॥ एयं मओ कहेउं, गयणेण गओ नहिच्छियं देसं । सिरिवद्धिओ य राया, पोयणनयरं अह पविट्टो ॥ ११३ ॥ पुण्णोदएण सेणिय !, कस्स वि रज्जं नरस्स उवणमइ । तं चेव उ विवरीयं, हवइह सुकयावसाणम्मि ॥११४॥ एकस्स कस्स वि गुरू, लधुणं धम्मसंगमो होइ । अन्नस्स गई अहमा, जायइ सनियाणदोसेणं ।। ११५ ॥ एयं नाऊण सया, काय वुहजणेण अप्पहियं । जे होइ मरणकाले, सिवसोग्गइमग्गदेसयरं ॥ ११६ ॥ एवं दया-दम-तओट्टियसंजमस्स. सोउं जणो मयमहामुणिभासियत्थं । सामन्त-सेट्टिसहिओ सिरिवद्धिओ सो, धम्म करेइ विमलामलदेहलम्भं ॥ ११७ ॥ ।। इइ पउमचरिए मयवक्खाणं नाम सत्तहत्तरं पव्वं समत्तं ।। ७८. साएयपुरीवण्णणपव्वं भत्तार-सुयविओगे, एगन्तेणेव दुक्खिया भवणे । अवराइया पलोयइ, दस वि दिसाओ सुदीणमुही ॥ १ ॥ पुत्तस्स दरिसणं सा, कङ्खन्ती ताव पेच्छइ गवक्खे । उप्पयनिवयकरेन्तं, एक चिय वायसं सहसा ॥ २॥ बाद वह गाँवमेंसे बाहर निकला। (१०७) तव विधिके योगसे आगसे वह गाँव जल उठा। गाँवके लोगोंने उस पथिकको पकड़कर आगमें भोंक दिया। (१०८) मर करके वह राजाकी रसोइन हुआ। वहाँसे मरने पर घोर वेदनावाले नरकमें वह पैदा हई। (१०४) हे राजन् ! नरकको पान करके वह तुम्हारी माता और भार्गवकी पत्नी सुशीलमति इस मित्रयशाके रूपमें उत्पन्न हुई है। (११०) पतन नगरमें गोधानिक नामका वणिक था और उसकी भुजपत्रा नामकी पत्नी थी। वह (गोधानिक?) मर कर उसके पेटमें उत्पन्न हुआ। (१११) गुणविशाला भुजपत्रा उस (पुत्र) में रतिको बढ़ानेकी इच्छावाली हुई। इसके बाद गर्दभादिकी पीड़ा और पुर (३.हर ) में भारोद्वहन-(११)१ । इस प्रकार कहकर मयमुनि आकाशमार्गसे जिस देशमें जानेकी उनकी इच्छा थी उस देशमें चले गये। श्रीवर्धित राजाने भी पोतननगरमें प्रवेश किया । (११३) हे श्रेणिक ! पुण्यका उदय होने पर किसी भी मनुष्यको राज्य प्राप्त होता है और पुण्यका अवसान होने पर वही उसे विपरीत होता है । (११४) गुरुको प्राप्त करके किसी एकको धर्मका योग होता है तो दूसरेको निदानके दोषसे अधम गति मिलती है । (११५) ऐसा जानकर समझदार मनुष्यको सदा आत्महित करना चाहिए जिससे मरणकालमें मोक्ष, सद्गति या मार्गका उपदेशक पद प्राप्त हो । (११६) इस तरह दया, दम एवं तपमें उद्यत संयमी महामुनि मयका उपदेश सुनकर सामन्त और सेठोंके साथ वह श्रीवधित राजा निर्मल और विमल देहकी प्राप्ति करानेवाले धर्मका आचरण करने लगा। (१७) ॥ पद्मचरितमें मयका आख्यान नामक सतहत्तरवाँ पर्व समाप्त हुआ । ७८. साकेतपुरीका वर्णन पति और पुत्रका वियोग होने पर अत्यन्त दुःखित और दीन मुखवाली अपराजिता (रामकी माता) भवनमें से दशों दिशाएँ देखती थी। (१) पुत्रके दर्शनकी इच्छावाली उसने सहसा गवाक्षमें से एक कौएको उड़ते और बैठते देखा। १. गाथा १११ और ११२ का संबंध ठीक नहीं लगता है और अर्थमें संदेह है। संस्कृत पद्मचरितमें इसके लिये देखो पर्व ८० श्लोक २००-२०१। 2-6 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001273
Book TitlePaumchariyam Part 2
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages406
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size11 MB
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