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________________ ४३८ पउमचरियं [७७.५६दसण-नाण-चरित्ते, सुद्धो तव-चरण-करणविणिओगे। केवलनाणाइसयं, संपत्तो भाण्यण्णो वि ॥ ५९ ॥ ठाणेसु जेसु एए, सिवमयलमणुत्तरं सुहं पत्ता । दीसन्ति ताणि सेणिय !, ते पुण साहू न दीसन्ति ।। ६० ॥ विझत्थलीसु जेण उ, इन्दइ तह मेहवाहणो सिद्धो । तित्थं मेहरवं तं, विक्खायं तिहुयणे जायं ॥ ६१ ॥ समणो वि जम्बुमाली, कालं काऊण तो निमित्तम्मि । अहमिन्दत्तं पत्तो, सुचरियकम्माणुभावेणं ॥ ६२ ॥ तत्तो चुओ य सन्तो, होहइ एरावए महासमणो । केवलसमाहिजुत्तो, सिद्धि पाविहिइ धुयकम्मो ॥ ६३ ॥ अह नम्मयाएँ तीरम्मि निधुओ कुम्भयण्णमुणिवसभो । पीढरखड्डु' भण्णइ, तं तित्थं देसविक्खायं ॥ ६४ ॥ मारीजि तबच्चरणं काऊणं कप्पवासिओ जाओ । जो जारिसम्मि ववसइ, फलं पि सो तारिसं लभइ ॥ ६५ ।। पुवं काऊण बहु, पावं मयदाणवो वि मुणिवसभो । तवचरणपभावेणं, जाओ बहुलद्धिसंपन्नो ॥ ६६ ॥ एयन्तरम्मि राया, पुच्छइ गणनायगं पणमिऊणं । कह सो मओ महाजस!, जाओ च्चिय लद्धिसंपन्नो ।। ६७ ॥ अन्नं पि सुणमु सामिय !, ना हवइ पइचया इहं नारी । सा सीलसंजमरया, साहसु कवणं गई लहइ ॥ ६८ ॥ तो भणइ इन्दभूई, ना दढसीला पइबया महिला । सीयाएँ हवइ सरिसी, सा सग्गं लहइ सुकयत्था ॥ ६९ ।। जह तुरयरहवराणं, पत्थरलोहाण पायवाणं च । हवइ विसेसो नरवइ !, तहेव पुरिसाण महिलाणं ॥ ७० ॥ एसो मणमत्तगओ, उद्दामो बिसयलोलुओ चण्डो । नाणकुसेण धरिओ, नरेण दढसत्तिजुत्तेणं ।। ७१ ॥ निसुणेहि ताव सेणिय !, सीलविणासं पराभिमाणेणं । नायं चिय महिलाए, तं तुज्झ कहेमि फुडवियर्ड ॥७२॥ जइया आसि जणवओ, काले बहुरोगपीडिओ सबो । धन्नग्गामाउ तया, नट्ठो विप्पो सह पियाए ॥ ७३ ॥ सो अग्गिलो अडयणा, सा महिला माणिणी महापावा । चत्ता य महारण्णे, विप्पेणं माणदोसेणं ॥ ७४ ॥ एवं चारित्रयुक्त, शुद्ध, तप और चरण-करणमें नियुक्त भानुकर्णने भी केवलज्ञानका अतिशय प्राप्त किया । (५६) हे श्रेणिक ! जिन स्थानों में इन्होंने अचल, अनुत्तर और शुभ मोक्ष प्राप्त किया था वे तो दीखते हैं, पर वे साधु नहीं दिखाई पड़ते। (६०) बिन्ध्यस्थल में इन्द्रजत तथा मेघवाहन सिद्ध हुए थे, अतः वह मेघरव तीर्थ त्रिभुवनमें विख्यात हुआ। (६१) जम्बुमाली श्रमणने भी निमित्त आने पर काल करके आचरित शुभ कर्म के प्रभावसे अहमिन्द्रपना प्राप्त किया। (६२) वहाँ से च्युत होने पर वह ऐरावत क्षेत्र में महाश्रमण होगा। कोका क्षय करके केवल समाधिसे युक्त वह सिद्धि प्राप्त करेगा। (६३) नर्मदाके तीर पर मुनिवृषभ कुम्भकर्णने निर्वाण प्राप्त किया। देशविख्यात वह तीर्थ पीठरखण्ड कहा जाता है । (६४) मरीचि तपश्चरण करके कल्पवासी देव हुआ। जो जैसा करता है वह फल भी वैसा ही पाता है। (६५) पहले बहुत पाप करके मुनिवृषभ मयदानव भी तपश्चय के प्रभावसे अनेक विध लब्धियोंसे सम्पन्न हुआ। (६६) इस पर राजा श्रेणिकने गणनायक गौतम स्वामीको प्रणाम करके पूछा कि. हे महायश! वह मय कैसे लब्धिसम्पन्न हुआ? (६७) हे स्वामी ! और भी सुनें। जो की यहाँ पर प्रव्रजित होती है वह शील और संयममें रत कौनसी गति प्राप्त करती है, यह श्राप कहें। (६८) तब इन्द्रभूतिने कहा कि जो सीताके समान शीलमें दृढ़ स्त्री प्रव्रजित होती है वह अत्यन्त कृतार्थ ही स्वर्ग प्राप्त करती है। (६६) हे राजन् ! जिस तरह घोड़े और रथमें, पत्थर और लोहेमें तथा वृक्षोंमें वैशिष्ट्य होता है उसी तरह पुरुपोंमें और रियों में वैशिष्ट्य होता है। (७०) स्वच्छन्द, विषय-लोलुप और भयानक मन रूपी हाथीको दृढ़ शक्तियुक्त पुरुप ज्ञानरूपी अंकुशसे वाबूमें रख सकता है। (७१) हे श्रेणिक ! अत्यधिक अभिमानसे स्त्रीके शलका जो विनाश हुआ वह मैं तुम्हें पुट और विशद रूपसे कहता हूँ। उसे तुम सुनो । (७२) जिस समय रोगसे अत्यन्त पीड़ित सारा जनपद था उस समय धान्य ग्रामसे एक ब्राह्मण प्रियाके साथ निकल पड़ा। (५३) वह अमिल था। बुलटा एस माननी और महापापी स्त्रीको अभिमानके दोषसे ब्राह्मणने जंगलमें छोड़ दिया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001273
Book TitlePaumchariyam Part 2
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages406
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size11 MB
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