________________
४२४
पउमचरियं
[७४.२रामेण तओ रुद्धो, मुच्छं गन्तुं पुणों वि आसत्थो । एकोयरस्स पासे, ठिओ य तो विलविउ पयत्तो ॥ २ ॥ हा भाय रावण ! तुमं, इन्दो इव संपयाएँ होऊणं । कह पत्तो सि महाजस!, एयावत्थं महापावं? ॥ ३ ॥ न य मज्झ तुमे वयणं, पडिच्छियं हिययरं भणन्तस्स । दढचक्कताडिओ वि हु, पडिओ धरणीयले फरसे ॥ ४ ॥ उठेहि देहि वयणं, सुन्दर ! मह एवविलवमाणस्स । उत्तारेहि महाजस!, सोगमहासागरे पडियं ॥ ५ ॥ सोऊण विशयनीयं, दवयणन्तेउरं सपरिवारं । सोगाउरं रुयन्तं, रणभूमि आगयं दीणं ॥ ६ ॥ दठूण सुन्दरीओ, भत्तारं रुहिरकद्दमालित्तं । धरणियले पल्हत्थं, सहसा · पडियाउ महिबट्टे ॥ ७ ॥ रम्भा य चन्दवयणा, तहेव मन्दोयरी महादेवी । पवरबसी य नीला य रुप्पिणी रयणमाला य॥ ८॥ ससिमण्डला य कमला य सुन्दरी तह य चेव कमलसिरी । सिरिदत्ता य सिरिमई, भदाय तहेव कणयपभा ॥९॥ सिरिकन्ता य मिगाबइ, लच्छी य अणङ्गसुन्दरी नन्दा । पउमा वसुंधरा वि य, तडिमाला चेव भाणुमई ॥ १० ॥ पउमावती य कित्ती, पीई संझावली सुभा कन्ता । मणवेया रइवेया, पभावई चेव माणवई ॥ ११ ॥ जुवईण एवमाई, अट्ठारस साहसीउ अइकलुणं । रोवन्ति दुक्खियाओ, आभरणविमुक्ककेसीओ ॥ १२ ॥ काइत्थ मोहवडिया, चन्दणबहलोदएण सित्तङ्गी । उल्लसियरोमकूवा, पडिबुद्धा पउमिणी चेव ॥ १३ ॥ अवगृहिऊणं दइयं, अन्ना मुच्छं गया कणयगोरी । अञ्जणगिरिस्स लग्गा छज्जइ सोयामणी चेव ॥ १४ ॥ काइत्थ समासत्था, उरतालणचञ्चलायतणुयङ्गी । केसे विलुम्पमाणी, रुयइ चिय महुरसद्देणं ॥ १५ ॥ अङ्के ठविऊण सिरं, अन्ना परिमुसइ विउलवच्छयलं । काइ चलणारविन्दे, चुम्बई करपल्लवे अवरा ।। १६ ।। जंपइ काइ सुमहुरं, रोवन्ती अंसुपुण्णनयणजुया । हा नाह ! किन पेच्छसि, सोगसमुद्दम्मि पडियाओ? ॥ १७ ॥
वह विलाप करने लगा कि-हा भाई रावण ! हा महायश ! सम्पत्तिमें इन्द्रकी भाँति होने पर भी तुम ऐसी महापापी अवस्थाको कैसे प्राप्त हुए ? (२-३) हितकर कहनेवाले मेरा वचन तुमने नहीं माना। चक्रके द्वारा अत्यन्त ताड़ित होने पर तुम कठोर जमीन पर गिर पड़े हो। (४) हे सुन्दर ! उठो और इस तरह विलाप करते हुए मुझसे बातें करो। हे महायश! शोकरूपी महासागर में पतित मुझे पार लगायो। (५)
मृत्युके बारेमें सुनकर परिवारके साथ शोकातुर, रोता हुआ और दीन ऐसा रावणका अन्तःपुर समरभूमि पर आया। (६) पतिको रक्तके कीचड़से लिपटे हुए तथा जमीन पर पड़े हुए देख सुन्दरियाँ एकदम पृथ्वी पर गिर पड़ीं। (७) रम्भा, चन्द्रवदना, पटरानी इरी, प्रवरा, उर्वशी, नीला, रुक्मिणी, रत्नमाला, शशिमण्डला, कमला, सुन्दरी, कमलश्री, श्रीदत्ता, श्रीमती, भद्रा, कनकप्रमा, श्रीकान्ता, मृगावती, लक्ष्मी, अनंगसुन्दरी नन्दा, पद्मा, वसुन्धरा, तडिन्माता, भानुमती, पद्मावती, कीति, प्रीति, सन्ध्यावली, शुभा, कान्ता, मनोवेगा, रतिवेगा, प्रभावती तथा मानवती आदि अठारह हज़ार युवतियाँ
आभरणों का त्याग करके ओर बालोंको विखेरकर दुःखित हो अत्यन्त करुण स्वरमें रोने लगीं। (८-१२) बेसुध होकर गिरी हुई कोई स्त्री चन्दनमिश्रित जलसे शरीर सिक्त होने पर रोम-छिद्रोंके विकसित होनेसे कमलिनीकी भाँति जागृत हुई। (१३) पतिका आलिंगन करके मूहित दूसरी कनकगौरी अंजनगिरिसे लगी हुई बिजली की भाँति मालूम होती थी। (१४) कोई कोमल शरीरवाली स्त्री होशमें आने पर छाती पीटती थी और बालोंको उखेड़ती हुई मधुरशब्दसे रोती थी। (१५) दूसरी कोई की सिरको गोदमें रखकर विपुल वक्षस्थलको छूती थी। कोई चरणारविन्द को तो दूसरी करपल्लवको चूमती थी। (१६) दोनों आँखोंमें आँसू भरकर रोती हुई कोई सुमधुर वाणीमें कहती थी कि, हा नाथ ! शोक-समुद्रमें पतित हमें क्या तुम नहीं देखते ? (१७) हे प्रभो! शक्ति, कान्ति एवं बलसे युक्त तुम विद्याधरोंके स्वामी
१. ससिदत्ता-प्रत्य० । २. कणयाभा-प्रत्य० । ३.०वई य कन्ती मु०।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org.