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७०. उज्जोगविहाणपव्यं
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विज्जाहरमिहुणाई, कीलन्ति घरे घरे नहिच्छाए । उत्तरकुरुसु नजइ, वड्डियनेहाणुरागाई ।। ५७ ॥ वीणाइ-वंस-तिसरिय-नाणाविहगीय-वाइयरवेणं, । जंपइ व महानयरी, जणेण उल्लावमन्तेणं ।। ५८ ।। तम्बोल-फुल्लभान्धाइएसु देहाणुलेवणसएसु । एव विणिओयपरमो, लोगो मयणुस्सवे तइया ॥ ५९॥ लङ्काहिवो वि एत्तो, निययं अन्तेउरं निरवसेसं । सम्माणेइ महप्पा, अहियं मन्दोयरी देवी ॥ ६०॥ एवं सुहेण रयणी, वोलीणा आगयाऽरुणच्छाया । संगीय-तूरसहो, भवणे भवणे पवित्थरिओ ॥ ६१ ।। ताव य चक्कायारो, दिवसयरो उग्गओ कमलबन्धू । कह कह वि पणइणिजणं, संथाविय दहमुहो भणइ ॥ ६२ ॥ सन्नाहसमरभेरी, पहणह तूराई मेहघोसाई । रणपरिहत्थुच्छाहा, होह भडा! मा चिरावेह ॥ ६३ ।। तस्स वयणेण सिग्धं, नरेहि पहया तओ महाभेरी । सद्देण तेण सुहडा, सन्नद्धा सयलबलसहिया ॥ ६४ ॥ मारीजी विमलाभो, विमलघणो नन्दणो सुणन्दो य । सुहडो य विमलचन्दो, अन्ने वि य एवमाईया ॥ ६५ ॥ तुरएसु रहवरेसु य, पवयसरिसेसु मत्तहत्थीसु । सरह-खर-केसरीसु य, वराह-महिसेसु आरूढा ।। ६६ ॥ असि-कणय-चाव-खेडय-वसुनन्दय-चक्क तोमरविहत्था । धय-छत्तबद्धचिन्धा, असुरा इव दप्पियाडोवा ।। ६७ ॥ निप्फिडिऊण पवत्ता, सुहडा लङ्कापुरीएँ रणसूरा । ऊसियसियायवत्ता, संपेल्लोपेल्ल कुणमाणा ॥ ६८ ॥ बहुतूरनिणाएणं, हयहेसिय गजिएण हत्थीणं । फुट्टइ व अम्बरतलं, विमुक्पाइक्कनाएणं ॥ ६९ ॥ अह ते रक्खससुहडा, सन्नद्धा रयणमउडकयसोहा । वच्चन्ता गयणयले, छज्जन्ति घणा इव सविज ॥ ७० ॥
महाभडा कवइयदेहभूसणा, समन्तओ तुरय-गइन्दसंकुला। सज्जाउहा दिणथरतेयसन्निहा, विणिग्गया विमलजसाहिलासिणो ॥ ७१ ।।
॥ इय पउमचरिए उज्जोयविहाणं नाम सत्तरं पव्वं समत्तं ।। करनेवाली स्त्रीने मनमें विरहसे अत्यन्त भयभीत हो प्रियतमको गाढ़ आलिंगन दिया। (५६) मानो उत्तरकुरुमें क्रीड़ा कर रहे हों इस तरह बढ़े हुए स्नेहानुरागसे युक्त विद्याधर-युगल घर-घरमें इच्छानुसार कोड़ा कर रहे थे। (५७) वीणा, बंशी आदिसे समृद्ध नानाविध गीत एवं वाद्योंकी ध्वनिसे तथा वार्तालाप करनेवाले लेगोंसे मानो महानगरी सम्भाषण कर रही थी। (५८) ताम्बूल, फूल एवं गन्धादिसे तथा सैकड़ों प्रकारके शरीरके अनुलेपनसे उस समय लोग मदनोत्सवमें अत्यन्त संलग्न थे। (५६) उधर महात्मा रावणने भी अपने समग्र अन्त पुरमें मन्दोदरी देवीको अधिक सम्मानित किया । (६०) इस प्रकार सुखपूर्वक रात व्यतीत हुई और अरुण कान्ति प्रकट हुई। संगीत और वाद्योंकी ध्वनि घरघरमें फैल गई। (६१) उस समय कमलबन्धु चक्राकार सूर्य उदित हुआ। प्रणायेना जनोंको किसी तरहसे आश्वासन देकर रावणने कहा कि युद्धकी तैयारी करो। समरभर तथा बादलकी भाँति घोष करनेवाले वाद्य बजाओ। सुभट रणके लिए परिपूर्ण उत्साहवाले हों। देर मत करो। (६२-६३) उसके आदेशके अनुसार लोगोंने महाभेरि बजाई। उसकी आवाज़से समग्र सैन्य साहेत सुभट सन्नद्ध हो गये । (६४) मरीचि, विमलाभ, विमलघन, नन्दन, सुनन्द, विमलचन्द्र तथा दूसरे सुभट भी घोड़ों पर, रथोंमें, पर्वत सरीखे मत्त हाथियों पर, शरभ, गधे, सिंह, वराह और भैंसों पर सवार हुए। (६५-६६) तलवार, कनक, धनुष, स्फेटक (नाशक शस्त्र), वसुनन्दक (एक प्रकारकी उत्तम तलवार ), चक्र एवं तोमर चलानेमें दक्ष, ध्वजा एवं छत्रोंके चिह्न लगाये हुए, असुरोंको भाँति दर्पयुक्त, ऊपर उठाये हुए सफेद छत्रवाले तथा एक दूसरेको दबाते और ऊपर उठाते हुए रणशूर सुभटोंने लंकापुरीकी ओर निर्गमन किया। (६७-६८) नानाविध रणवाद्योंके निनादसे, घोड़ोंकी हिनहिनाहट और हाथियों की चिंघाड़से तथा पैदल सैनिकों द्वारा लगाये जानेवाले नारोंसे मानों आकाशतल फूट रहा था। (६६) कवच पहने हुए तथा रत्नोंके मुकुटसे शोभित वे राक्षस-सुभट आकाशमार्गसे जानेपर बिजलीसे युक्त बादलकी तरह शोभित हो रहे थे। (७०) कवच धारण करनेसे अलंकृत शरीरवाले, चारों ओर घोड़े और हाथियोंसे व्याप्त आयुधोंसे सज्ज, सूर्यके तेजके तुल्य तेजस्वी तथा विमल यशकी अभिलाषावाले महाभट निकल पड़े। (७१)
॥ पद्मचरितमें उद्योग-विधान नामक सत्तरवाँ पर्व समाप्त हुआ ।
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