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________________ ६६.५] ४०५ ६९. रावणचिन्ताविहाणपव्य न य सुणइ नेय पेच्छइ, सबेसु य इन्दिएसु गुत्तेसु । विज्जासाहणपरमो, नवरं झाणेकगयचित्तो ॥ ४४ ॥ मेरु ब निष्पकम्पो, अक्खोभो सायरो इव महप्पा । चिन्तेइ एगमणसो, विजं रामो जणयसुयं ॥ ४५ ॥ एयम्मि देसयाले, उज्जोयन्ती दिसाउ सबाओ । जयसई कुणमाणी, बहुरूवा आगया विज्जा ॥ ४६ ॥ तो भणइ महाविज्जा, सिद्धा है तुज्झ कारणुज्जत्ता । सामिय! देहाऽऽणत्ति, सज्झं मे सयलतेलोकं ।। ४७ !! एक मोत्तूण पहू !, चक्कहरं तिहुयणं अपरिसेसं । सिग्धं करेमिह बसे, लक्खण-रामेसु का गणणा ? ॥ ४८ ॥ भणिया य रावणेणं, विज्जा नत्थेत्थ कोई संदेहो । नवरं चिन्तियमेत्ता, एज्जसु मे भगवई! सिग्धं ॥ ४९ ॥ जावं समत्तनियमो नमिऊण विज्जं, लङ्काहिवो ति परिवारइ सन्तिगेहं । मन्दोयरिं विमलकित्तिधरि पमोत्तं , तावं गओ पउमणाहसहाणिओयं ॥ ५० ॥ || इय परमचरिए बहुरूवासाहणं नाम अडसट्ठिमं पव्वं समत्तं ।। सन्त ताण पड मा टवेयरा संयत हा मनसे सातवाली ६९. रावणचिन्ताविहाणपव्वं अह जुवइसहस्साई, दस अट्ट य तस्स पणमिउं चलणे । गलियंसुलोयणाई, नंपन्ति पह! निसामेहि ॥१॥ सन्तेण तुमे सामिय!, विज्जाहरसयलवसुमइवईणं । खलियारियाउ अम्हे, अजं सुग्गीवपुत्तेणं ।। २ ।। सुणिऊण ताण वयणं, रुट्टो लङ्काहिवो भणइ एत्तो । ववहरइ जो हु एवं, बद्धो सो मच्चपासेहिं ॥ ३ ॥ मुञ्चह कोवारम्भ, संपइ मा होह उस्सुयमणाओ । सुग्गीवं निज्जीवं, करेमि समरे न संदेहो ॥ ४ ॥ भामण्डलमाईमा, अन्ने वि य दुट्ठखेयरा सबे । मारेमि निच्छएणं, का सन्ना पायचारेहिं ॥ ५ ॥ साधनामें तत्पर तथा ध्यानमें एकाग्र मनवाला वह सभी इन्द्रियोंमें संयत होनेसे न तो सुनता था और न देखता ही था। (४४) मेरुकी भाँति निष्प्रकम्प और सागरकी भाँति अक्षेभ्य बह महात्मा, एकाग्र मनसे सीताका चिन्तन करनेवाले रामकी भाँति, विद्याका चिन्तन कर रहा था। (४५) इसी समय सव दिशाओंको प्रज्वलित करनेवाली तथा जयघोष करती हुई बहुरूपा विद्या आई। (४६) तब उस महाविद्याने कहा कि, हे स्वामी! मैं सिद्ध हुई हूँ। आपके लिए मैं कार्य करनेके लिए उद्यत हूँ। श्राप श्राज्ञा दें। मेरे लिए सारा त्रिलोक साध्य है। (४७) हे प्रभो! एक चक्रवर्तीको छेड़ सारा त्रिभुवन मैं शीघ्र ही वसमें कर सकती हूँ। लक्ष्मण और रामका तो क्या हिसाव है ? (४८) रावणने उसे कहा कि, भगवती विद्ये ! इसमें कोई सन्देह नहीं है। सोचते ही तुम शीघ्र ही मेरे पास आ जाना । (४६) जिसका नियम समाप्त हुआ है ऐसा लंकेश रावण विद्या को नमस्कार करके जसे ही भगवान् शान्तिनायके मन्दिरमें प्रदक्षिणा देने लगा वैसे ही निर्मल यशको धारण करनेवाली मन्दोदरीको छड़कर सेनाके साथ वह अंगद रामके पास चला गया। (५०) ॥ पद्मचरितमें बहुरूपा विद्याकी साधना नामक अड़सठवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥ में साल भगवती ६९. रावणकी चिन्ता इसके अनन्तर रोती हुई अठारह हजार युवतियोंने उस रावण के चरणों में प्रणाम करके कहा कि, हे प्रभो! आप सुनें। (१) हे स्वामी ! आपके सब विद्याधर राजाओंके रहते सुप्रीवके पुत्र अंगदने आज हमारा अपमान किया है। (२) उनका कथन सुन रुष्ट लंकाधिपने कहा कि जो ऐसा व्यवहार करता है वह मृत्युके पारासे निश्चय ही जकड़ा गया है । (३) अब क्रोध छोड़ो। मनमें चिन्ता मत रखो। इसमें सन्देह नहीं कि युद्धमें सुग्रीवको निष्प्राण करूँगा। (४) भामण्डल आदि दूसरे सब दुष्ट विद्याधरोंको अवश्य ही मारूँगा तो फिर पादचार मनुष्योंकी तो बात ही क्या है ? (५) इस तरह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001273
Book TitlePaumchariyam Part 2
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages406
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size11 MB
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