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६८. २६]
६८. बहुरूवासाहणपव्व तत्थ वि य कज्जलनिभा, वसुंधरा इन्दनीलनिम्माया । संसइयदिन्नपसरा, नाउं कढिणं न देन्ति पयं ॥ ११ ॥ दिवा य तत्थ एक्का, तरुणी फलिहामयम्मि सोवाणे । पुच्छन्ति दिसामूढा, भद्दे ! कत्तो जिणहरं तं? ॥ १२ ॥ जाहे सा पडिवयणं, न देइ ताणं विमग्गमाणाणं । ताहे करेहि फुसियं, लेप्पयमहिला विजाणन्ति ॥ १३ ॥ अह ते विलक्खवयणा, अन्नं कच्छन्तरं समल्लीणा । तत्थ महानीलमए, कुड्डु सहस ति आवडिया ॥ १४ ॥ ते चक्खुवज्जिया इव, सुहडा एककम अपेच्छन्ता । परिमुसिऊणाऽऽढत्ता. करेसु अइदीहकुडाई ॥ १५ ॥ परिमुसमाणेहि नरो, सज्जीवो जाणिओ य वायाए । केसेसु खरं गहिओ. भणिओ दावेहि सन्तिहरं ॥ १६ ॥ एवं ते पवयभडा, पुरओ पहदेसयं नरं काउं । सबै वि समणुपत्ता, सन्तिजिणिन्दस्स वरभवणं ॥ १७ ॥ दिट्टं सरयब्भनिभ, नाणाविहचित्तयम्मकयसोहं । ऊसियधयावडायं, सग्गविमाणं व ओइण्णं ॥ १८ ।। वजिन्दनील-मरगय-मालाओऊलभूसियदुवारं । नाणारयणसमुज्जल-सुयन्धवरकुसुमकयपूयं ॥ १९ ॥ विच्छड्डिय बलियम्म, कालागरुबहलधूवगन्धन। तक्खणमेत्तप्पाडिय-वरकमलकयच्चणविहाणं ॥ २० ॥ एयारिसं च दहूँ, जिणभवणं विम्हिया तओ जोहा । पणमन्ति सन्तिनाह, तिक्खुतपयाहिणावत्तं ॥ २१ ॥ एवं सो निययबलं. बाहिरकच्छन्तरे ठवेऊणं । पविसरइ सन्तिभवणं, दढहियओ अङ्गयकुमारो ॥ २२ ॥ भावेण वन्दणं सो, काऊणं तस्स पेच्छए पुरओ । कोट्टिमतले निविटुं, जोगत्थं रक्खसाहिवई ॥ २३ ॥ अह भणइ अङ्गओ तं, रावण ! किं ते समुट्ठिओ डम्भो । तिजगुत्तमस्स पुरओ, हरिऊणं जणयरायसुर्य ? ॥ २४ ॥ धिद्धि ! त्ति रक्खसाहम !, दुच्चरियावास! तुज्झ एत्ताहे । तं ते करेमि जं ते, न य कुणइ जमो सुरुट्ठो वि ॥ २५ ॥
अह सो सुग्गीवसुओ, महयं काऊण कलयलारावं । आरुट्ठो दहवयणं, पहणइ वत्थेण वलहत्थो ॥ २६ ॥ दरवाजेमें प्रविष्ट हुए। (१०) वहाँपर भी इन्द्रनील-मणिसे निर्मित काजलके समान श्यामवर्णवाला आँगन था। उसमेंसे गुजरना शंकास्पद है ऐसा जानकर वे जोरसे पैर नहीं रखते थे। (११) वहाँ स्फटिकमय सोपानमें उन्होंने एक तरुणी देखी। दिग्भ्रान्त उन्होंने उससे पूछा कि, भद्रे ! वह जिनमन्दिर कहाँ आया ? (१२) खोजनेवाले उनको जब उसने जवाब नहीं दिया तब उन्होंने स्पर्श किया तो ज्ञात हुआ कि यह लेप्यमहिला (विविध पदार्थोंके लेपसे बनाई गई स्त्री-मूर्ति) है। (१३) लज्जित मुखवाले वे एक दूसरे कक्षमें गये। वहाँ महानीलमणिकी बनी हुई दीवारके साथ एकदम टकराये । (१४) अन्धोंकी भाँति एक-दूसरेको न देखते हुए वे सुभट अतिदीर्घ दीवारोंको हाथसे छूने लगे। (१५) छू-छू करके आगे बढ़नेवाले उन्होंने वाणीसे सजीव मनुष्यको जान उसे बालोंसे निष्ठुरतापूर्वक पकड़ा और कहा कि शान्तिगृह दिखाओ । (१६) इस प्रकार मार्गदर्शक मनुष्यको आगे करके वे सब वानर-सुभट शान्तिजिनेन्द्र के उत्तम भवनमें जा पहुँचे । (१७) उन्होंने शरत्कालीन मेघके समान सफेद, नानाविध चित्रकर्मसे सजाये गये तथा ऊपर उठी हुई ध्वजा-पताकावाले उस भवनको नीचे उतरे हुए स्वर्गविमानकी भाँति देखा । (१८) वज्र, इन्द्रनील एवं मरकतकी मालाओं और रेशमी वस्त्रोंसे विभूषित द्वारवाले, नाना प्रकारके रत्नोंसे देदीप्यमान, उत्तम सुगन्धित पुष्पोंसे जिसमें पूजा की गई है ऐसे, नैवेद्यसे भरे हुए, कालागरुकी घनी धूपसे गन्धयुक्त, उसी समय तोड़े गये उत्तम कमलोंसे जहाँ पूजा की गई है ऐसे उस जिनमन्दिरको देखकर उन विस्मित योद्धाओंने तीन बार प्रदक्षिणा करके शान्तिनाथ भगवानको प्रणाम किया। (१६-२१)
इस प्रकार अपनी सेनाको बाहरके कक्षमें रखकर दृढ़ हृदयवाले अंगदकुमारने भगवान शान्तिनाथके मन्दिरमें प्रवेश किया । (२२) वहाँ उन्हें भावपूर्वक वन्दन करके उसने सामने रत्नमय भूमिपर योगस्थ राक्षसाधिपति रावणको देखा । (२३) तब अंगदने उसे कहा कि, हे रावण! जनकराजकी पुत्री सीताका अपहरण करके तीनों लोकोंमें उत्तम ऐसे भगवान के सम्मुख तूने यह क्या दम्भका अनुष्ठान किया है ? (२४) हे अधम राक्षस! हे दुश्चरितके आवास! तुझे धिक्कार है। अत्यधिक रुष्ट यम भी जो नहीं कर सकता ऐसा हाल मैं अब तेरा करूँगा। (२५) इसके पश्चात् बलवान् हाथवाले और गुस्सेमें आये हुए सुग्रीवपुत्र उस अंगदने बहुत ही शोर मचाकर रावणको कपड़ेके ( कोड़ेसे) पीटा । (२६) उसके आगे रखे गये सहस्रदल
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