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६७. सम्मद्दिट्टिदेव कित्तणपव्वं
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विद्धत्थं पवयचलं, सन्तीहरवासिएहि देवेहिं । नाऊण सेसचेइय-भवणनिवासी सुरा रुट्टा ॥ देवाण य देवाण य, आवडियं दारुणं महाजुज्झं । विच्छूढघायपउरं, अन्नोन्नाहवणारावं ॥ सन्तीहरसुरसेन्नं, दूरं. ओसारियं तु देवेहिं । दट्टण वाणरभडा, पुणरवि य ठिया नयरिहुत्ता ॥ नाऊण पुण्यभद्दो, रुट्टो तो भणइ माणिभद्दं सो । पेच्छसु किं व विमुक्का, वाणरकेऊ महापावा ? ॥ सन्तीहरमल्लीणं, नियमत्थं रावणं विगयसङ्गं । हन्तूण समुज्जुत्ता, मिच्छादिट्टी महाघोरा ॥ तो भणइ माणिभद्दो, नियमत्थं रावणं जिगाययणे । खोभेऊण न तीरइ, जइ वि सुरिन्द्रो सयं चेव ॥ भणिऊण एवमेयं, रुट्ठा जक्खाहिवा तहिं गन्तुं । तह जुज्झिउं पवत्ता, जेण सुरा लज्जिया नट्ठा ॥ अह ते नक्खाहिवई, पत्थरपहरेसु वाणराणीयं । गन्तूण उवलहन्ते, गयणत्थं राहवं ताहे ॥ अह भणइ पुण्णभद्दो, राम ! तुमं सुगसु ताव मह वयणं । उत्तमकुलसंभूओ, विक्खाओ दहरहस्त सुओ नाणसि धमाधम्मं, कुसलो नागोदहिस्स पारगओ । होऊण एरिसगुणो, कह कुणसि इमं अकरणिज्जं ? ॥ नियमत्थे दहवयणे, धीरे सन्तीहरं समल्लीणे । लङ्कापुरीऍ लोयं, वित्ताससि निययभिचेहिं ॥ जो नस्स हरइ दवं, निक्खुत्तं हरइ तस्स सो पाणे । नाऊण एवमेयं, राहव ! सुहडा निवारेहि ॥ तं भणइ लच्छिनिलओ, इमस्स रामस्स गुणनिही सीया । रक्खसनाहेण हिया, तस्स तुमं कुणसु अणुकम्पं ॥ कञ्चणपतेण तओ, अग्घं दाऊण वाणराहिवई । भणइ य नक्खनरिन्दं, मुञ्चसु एयं महाकोवं ॥ इह विन साहिज्जइ, दहवयणो गरुयदप्पमाहप्पो । बहुरूविणीऍ किं पुण, विज्जाऍ वसं उवगयाए ? ॥ पेच्छसु ममं महायस!, वच्च तुमं अत्तणो निययठाणं । ववगयकोवारम्भो, पसन्नचित्तो य होऊणं ॥ ४७ ॥ तो भइ पुण्णभद्दो, एव इमं एत्थ नवरि नयरीए । जह न वि करेह पोडं, जुण्णतणादीसु वि अकजं ॥ ४८ ॥
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जानकर बाकी मन्दिरोंमें बसनेवाले देव रुष्ट हो गये । ( ३२ ) तब देवों देवोंके बीच ही फेंके गये शस्त्रोंसे व्याप्त तथा एक-दूसरे को ललकारने से शब्दायमान ऐसा वह भयंकर महायुद्ध हुआ । ( ३३ ) दूसरे देवोंने शान्तिगृहके देवोंकी सेनाको दूर भगा दिया है ऐसा देख वानर सुभट पुनः लंकानगरीकी ओर अभिमुख हुए । ( ३४ ) यह जानकर रुष्ट पूर्णभद्र माणसे कहा कि वानर चिह्नवाले महापापी कैसे छूटे हैं यह तो देखो । (३५) शान्तिनाथ के मन्दिरमें आये हुए, नियमस्थ तथा संगसे रहित रावणको मारने के लिए अतिभयंकर और मिथ्यादृष्टि वानर उद्यत हुए हैं । ( ३६ ) तब माणिभद्रने कहा कि यदि स्वयं इन्द्र हो तो भी वह जिनभवनमें नियमस्थ रावणको क्षुब्ध करनेमें समर्थ नहीं है । (३७) ऐसा कहकर वे रुष्ट यक्षाधिप वहाँ जाकर इस तरह लड़ने लगे कि देव लज्जित होकर भाग गये । (३=)
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इसके पश्चात् पत्थरके प्रहारोंसे वानरसेनाको मारनेके लिए जब वे यक्ष गये तब उन्होंने आकाशमें स्थित रामको देखा । ( ३६ ) तब पूर्णभद्रने कहा कि, उत्तम कुलमें उत्पन्न, विख्यात और दशरथके पुत्र हे राम ! तुम मेरा कहना सुनो । (४०) तुम धर्म और अधर्मको जानते हो, कुशल हो और ज्ञान सागरको पार कर गये हो। ऐसे गुणोंसे युक्त होकर भी तुम यह कार्य क्यों कर रहे हो ? ( ४१ ) नियमस्थ और धीर रावण जब भगवान् शान्तिनाथके मन्दिरमें ध्यानस्थ है तब तुम अपने भृत्योंसे लंकापुरीके लोगों को क्यों दुःख देते हो ? (४२) जो जिसका द्रव्य हरता है वह निश्चय ही उसके प्राण लेता है। ऐसा जानकर, हे राघव ! तुम अपने सुभटों को रोको । (४३) इस पर लक्ष्मणने कहा कि इन रामकी गुणकी निधि जैसी सीताका राक्षसनाथ रावणने अपहरण किया है। उसके ऊपर तुम अनुकम्पा करते हो । (४४) इसके वाद वानराधिपति सुग्रीवने स्वर्णपत्रोंसे अर्घ्य प्रदान करके यक्षनरेन्द्रसे कहा कि आप इस महाकोपका त्याग करें । (४५) बशमें आई हुई बहुरूपिणी विद्यासे ही क्या, अत्यन्त दर्पयुक्त रावण दूसरी भी क्यों नहीं साधता ? (४६) हे महायश ! आप मेरी ओर देखें । क्रोधका परित्याग करके और प्रसन्नचित्त हो आप अपने स्थान पर पधारें। (४७) इस पर पूर्णभद्रने कहा कि इस नगरीमें केवल इतना ही करो कि पुराने तिनके को भी कोई पीड़ा देने जैसा अकार्य न करो । ( ४८ ) ऐसा कहकर
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