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पउमचरियं
[११८. ११३. जिणेसासणाणुरत्ता, होऊणं कुणह उत्तमं धर्म । जेण अविग्धं पावह, बलदेवाई गया जत्थ ।। ११३ ॥ ऐयं राहवचरियं, सबा वि य समयदेवया निययं । कुबन्तु संसणिजं, जणं च नियमत्तिसंजुरां ॥ ११४ ॥ रक्खन्तु भवियलोय, सूराईया गहा अपरिसेसा । सुसमाहियसोममणा, जिणवरधम्मुज्जयमईया ॥ ११५ ॥ ऊणं अइरित्तं वा, जं एत्थ कयं पमायदोसेणं । तं मे पडिपूरेउ, खेमन्तु इह पण्डिया सर्व ॥ ११६ ॥
राह नामायरिओ, ससमयपरसमयगहियसब्भावो । विजओ य तस्स सीसो, नाइलकुलवंसनन्दियरो ॥ ११७ ॥ सीसेण तस्स रइयं, राहवचरियं तु सूरिविमलेणं । सोऊणं पुबगए, नारायणं-सीरिचरियाई ॥ ११८ ॥ जेहिं सुर्य ववगयमच्छरेहिं तब्भत्तिभावियमणेहिं । ताणं विहेउ बोहिं, विमलं चरियं सुपुरिसाणं ॥ ११९ ॥
|| इइ पउमचरिए पउमनिव्वाणगमणं नाम अट्ठदसुत्तरसयं पव्वं समत्तं॥ ॥"इइ नाइलवंसदिणयरराहसुरिपसीसेण महप्पेण पुबहरेण विमलायरिएण विरइयं सम्मत्तं पउमचरिय ॥
करो। (११२) जिनशासनमें अनुरक्त होकर उत्तम धर्मका पालन करो जिससे बलदेव आदि जहाँ गये उस स्थानको तुम निर्विघ्न प्राप्त करो। (११३)
सभी श्रुतदेवता इस रामचरितका नित्य सन्निधान करे और लोगोंको अपनी भक्तिसे युक्त करे । (११४) समाधियुक्त, सौम्यमनवाले तथा जिनवरके धर्ममें उद्यत बुद्धिवाले सूर्यादि सब ग्रह भव्यजनोंका रक्षण करे। (११५) प्रमाद-दोषवश मैंने जो यहाँ कमोबेश कहा हो उसे पूर्ण करके पण्डितजन मेरे सब दोष क्षमा करें। (११६)
स्वसिद्धान्त और परसिद्धान्तके भावको ग्रहण करनेवाले राहु नामके एक आचार्य हुए। उनका नागिलवंशके लिए मंगलकारक विजय नामका एक शिष्य था। (११७) उसके शिष्य विमलमूरिने पूर्व-ग्रन्थोंमें आये हुए नारायण तथा हलधरके चरितोंको सुनकर यह राघवचरित रचा है। (१९८) मत्सररहित और उन रामकी भक्तिसे भावित मनवाले जिन्होंने यह चरित सुना उन सुपुरुषोंको बोधि और विमल चरित्र मिले।
॥ पद्मचरितमें रामका निर्वाणगमन नामका एक सौ अठारहवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥ ॥ नागिलवंशमें सूर्य जैसे राहुसूरिके प्रशिष्य पूर्वधर महात्मा विमलाचार्य द्वारा चरित पद्मचरित समाप्त हुआ ।
१-२ एकस्मिन् प्रत्यन्तरे नास्तीयं गाथा। ३. •न्तु ससणिज्झं, ज०-प्रत्य० । ४. खमंत मह पं०-प्रत्य० । ५. बहुनामा आयरिओप्रत्य० । ६. विजयो तस्स उ सी.-प्रत्य०। ७. ०ण-राम च०-प्रत्यः । ८. वोहिं, स ( ? म ) हिंसविमलचरियाण जिणईदे-प्रत्य० । ९. साणं ॥११९॥ ॥८६८४॥-प्रत्य० । १०. पव्वं सम्मत्तं ॥ प्रन्थानम् १०५५. सर्वसंख्या-प्रत्य० । ११. नास्तीमा पुष्पिका एकस्मिन्प्रत्यन्तरे । १२. चरियं ॥ इति पउमचरिय सम्मत्तं । मन्थाप्रम् सर्वसंख्या ॥ अक्खरम्मत्ता-बिंदू, जं च न लिहियं भयाणमाणेणं । तं [च ] खमसु सव्व महं, तित्थयरविणिग्गया वाणी! ॥ शुभं भवतु ॥ श्री संघस्य श्रेयोऽस्तु । प्रन्याग्रम् १२००० । संवत् १६४८ वर्षे वइसाख वदि ३ बुधे ओझा रुइं लिखितं ॥ लेखक पाठकयोऽस्तु एकस्मिन् प्रत्यन्तरे ।
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