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________________ ११७. पउमकेवलनाणुप्पत्तिविहाणपव्वं भयवं बलदेवो सो, पसन्तरइमच्छरो तवं घोरं । काऊण समाढतो, नाणाविहजोगसुपसत्थं ॥ १॥ छ?-ऽट्ठमेहिं विहरइ, गोयरचरियाएँ तत्थ आरण्णे । वणवासिणीहिं अहियं, पूइज्जन्तो सुरवहूहिं ॥ २॥ वय-समिइ-गुत्तिजुत्तो, समभावजिइन्दिओ जियकसाओ । सज्झायझाणनिरओ, नाणाविहलद्धिसंपन्नो ॥ ३ ॥ कत्थइ सिलायलत्थो, निबद्धपलियङ्कझाणगयचित्तो । चिट्ठइ पलम्बियभुओ, कत्थइ थम्भो इव अकम्पो ॥ ४ ॥ एवं महातवं सो, कुणमाणो अणुकमेण संपत्तो । कोडिसिला ना तइया, हक्खुत्ता लच्छिनिलएणं ॥ ५ ॥ अह सो तत्थारुहिउं, रति मण-बयण-कायसंजुत्तो । पडिमाएँ ठिओ धीरो, कम्मस्स विणासणट्टाए ॥ ६ ॥ अह सो झाणोवगओ, सीयापुत्रेण अच्चुइन्देणं । अवहिविसएण दिट्ठो, अच्चन्तं नेहराएणं ॥ ७ ॥ निययं भवसंघट्ट, नाऊण य जिणतवस्स माहप्पं । अच्चयवई खणेणं, संपत्तो विम्हयं ताहे ॥ ८॥ चिन्तन्तेण य मुणिओ, एसो हलधारणो नयाणन्दो। जो आसि मणुयलोए, महिलाभूयाए मह कन्तो ॥९॥ एय चिय अच्छेरं, कम्मस्स विचित्तयाएँ जं जीवो । लद्धण इस्थिभावं, पुणरवि उप्पज्जइ मणुस्सो ॥ १० ॥ अवियण्हकामभोगो, अहोगई लक्खणो समणुपत्तो । सो चेव रामदेवो, बन्धुविओगम्मि पबइओ ॥ ११ ॥ एयस्स खवगसेढीगयस्स रामस्स तं करेमि अहं । वेमाणिओ य देवो, जायइ मित्तो महं जेणं ।। १२॥ तो तेण समं पीई, काऊणं मन्दराइसु ठियाई। वन्दीहामि पहट्ठो, चेइयभवणाइ सबाई ॥ १३ ॥ नरयगयं सोमित्ति, आणेउं लद्धबोहिसम्मत्तं । समयं रामसुरेणं, सुह-दुक्खाई च जंपेहं ॥ १४ ॥ ११७. रामको केवलज्ञान रतिभाव और मात्सर्य जिनका उपशान्त हो गया है ऐसे वे भगवान् बलदेव नानाविध योगसे अतिप्रशस्त घोर तप करने लगे। (१) वनवासिनी देवियों द्वारा अधिक पूजित वे उस अरण्यमें बेले और तेलेके बाद गोचरीके लिए जाते थे। (२) व्रत, समिति और गुप्तिसे युक्त, समभाववाले, जितेन्द्रिय, कषायोंको जीतनेवाले, स्वाध्याय और ध्यानमें निरत तथा नानाविध लब्धियोंसे सम्पन्न वे कभी शिलातल पर बैठकर और पर्यकासन लगाकर चित्तमें ध्यान करते हुए बैठते थे, तो कभी स्तम्भकी तरह निष्कंप हो भुजाएँ लटकाकर ध्यानस्थ होते थे । (३-४) इस प्रकार महातप करते हुए वे अनुक्रमसे कोटिशिलाके पास पहुँचे, जिसको उस समय लक्ष्मणने उठाया था। (५) उस पर चढ़कर रातके समय मन, वचन और कायाका निग्रह करनेवाले धीर वे कोंके नाशके लिए प्रतिमा (ध्यान)में स्थित हुए। (६) तब ध्यानस्थ उन्हें पूर्वकी भव सीता और अब अच्युतेन्द्रने अवधिज्ञानसे अत्यन्त स्नेहपूर्वक देखा । (७) अपनी भवपीड़ा तथा जिन तपका माहात्म्य जानकर अच्युतपति क्षणभरमें विस्मयको प्राप्त हुआ। (८) सोचने पर ज्ञात हुआ कि विश्वको सुख देनेवाले ये जो हलधर हैं वे मनुष्यलोकमें जब मैं स्त्रीरूपमें थी तब मेरे पति थे। (९) यह एक आश्चर्य है कि कर्मकी विचित्रतासे जीव स्त्रीभाव प्राप्त करके पुनः पुरुषके रूपमें उत्पन्न होता है। (१०) कामभोगोंमें तृष्णायुक्त लक्ष्मणने अधोगति पाई हैं और उन रामने बन्धुके वियोगमें प्रव्रज्या ली है। (११) क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ रामके लिए मैं ऐसा करूँ-यदि कोई वैमानिक देव मेरा मित्र हो जाय तो उसके साथ प्रीति करके मन्दराचल आदि पर स्थित सब चैत्यगृह)को में हर्षित हो वन्दन करूँ। (१२-१३) सम्यग्दर्शन पाये हए नरकगत लक्ष्मणको लाकर रामके साथ में सुख-दुःखका बातें करूँ। (१४) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001273
Book TitlePaumchariyam Part 2
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages406
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size11 MB
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