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________________ ११३.५० ] ११३. कल्लाणमित्तदेवागमणं पव्वं ३६ ॥ ३७ ॥ ३८ ॥ ३९ ॥ ४० ॥ ॥ ४१ ॥ ४२ ॥ तं लक्खणस्स देहं अवगूहेऊण भणइ पउमाभो । कि सिरिहरं दुगंछसि, अमङ्गलं चेव कुणमाणो ! ॥ नाव कयन्तेण समं, परमो रामस्स वट्टह विवाओ । रयणकलेवरखन्धो, ताव 'जडाऊ समणुपत्तो ॥ दट्ठूण अभिमुहं तं, हलाउहो भणइ केण कज्जेणं । एयं कलेवरं चिंय, मइमूढो वहसि खन्धेणं ॥ भणिओ सुरेण पउमो, तुमं षि पाणेसु वज्जियं मडयं । वहसि अविवेगवन्तो, अहिययरं बालबुद्धीओ ॥ वालम्गकोडिमेत्तं, दोसं पेच्छसि परस्स अइसिग्धं । मन्दरमेत्तं पि तुमं, न य पेच्छसि अत्तणो दोसं ॥ दण तुमें परमा, मह पीई संपयं समणुनाया । सरिसा सरिसेसु सया, रज्जन्ति सुई जणे एसा काऊ भए पुरओ, नणम्मि सबाण बालबुद्धीणं । पुबपिसायाण तुमं, राया मोहं उवगयाणं ॥ अम्हे मोहवसगया, दोणि वि उम्मत्तयं वयं काउं । परिहिण्डामो वसुहं, कुणमाणा गहिलियं लोयं ॥ एवं भणियं सुणिउं, पसिढिलभावं च उवगए मोहे । सुमरइ गुरुवयणं सो, पउमो लज्ञासमावन्नो ॥ ववगयमोहघणो सो, पडिबोहणविमलकिरण संजुत्तो । चन्दो व सरयकाले, छज्जइ पउमो दढधिईओ || असणाइएण व जहा, लद्धं चिय भोयणं "हिययइङ्कं । तेव्हाघत्थेण सरं, दिहं पिव सलिल डिपुणं ॥ द्धं महोसहं पिव, अच्चन्तं वाहिपीडियतणूर्णं । एव पउमेण सरियं, गुरुवयणं चैव दुक्खेणं ॥ पडिबुद्धो नरवसहो, नाओ पप्फुल्लकमलदलनयणो । चिन्तेइऽह उत्तिण्णो, अहयं मोहन्धकूवाओ ॥ विमलं चिय संनायं, तस्स मणं गहियधम्मपरमत्थं । मोह मलपडलमुक्कं, नज्जइ सरए व रविबिम्बं ॥ ४९ ॥ अन्नं भवन्तरं पिव, संपत्तो विमलमाणसो रामो । चिन्तेऊणाढत्तो, संसारठिई सुसंविग्गो ॥ ५० ॥ ४३ ॥ ४४ ॥ ४५ ॥ ४६ ॥ ४७ ॥ ४८ ॥ लक्ष्मणकी क्यों निन्दा करते हो ? (३६) जब कृतान्त के साथ रामका खूब विवाद हो रहा था तब जटायु रत्नोंसे युक्त मुरदेको कन्धे पर रखकर आ पहुँचा । (३७) उसे सम्मुख देखकर रामने कहा कि, अतिमूढ़ तुम क्यों इस मुरदेको कन्धे पर लेकर घूमते हो ? (३८) देवने रामसे कहा कि अविवेकी और अत्यधिक बालबुद्धिवाले तुम भी प्राणोंसे रहित मुरदेको धारण करते हो। (३६) बालके अग्रभाग जितना दूसरेका दोष तुम जल्दी ही देख लेते हो, किन्तु मन्दराचल जितना अपना दोष तुम नहीं देखते । (४०) तुम्हें देखकर इस समय मुझे अत्यन्त प्रीति उत्पन्न हुई है ।' सदृश व्यक्ति सदृश व्यक्तियों के साथ ही सदा प्रसन्न होते हैं, ऐसी लोगों में अनुश्रुति है । (४१) लोकमें सब मूर्ख पुरुषोंका मुझे गुआ बनाकर तुम पहले मोहप्राप्त मूर्खोके राजा हुए हो । (४२) अतः मोहके वशीभूत हम दोनों ही उन्मत्त वचन बोलकर लोगों को उन्मत्त बनाते हुए पृथ्वी पर परिभ्रमण करें। (४३) ५७६ ऐसा कहना सुनकर मोहभाव शिथिल होने पर लज्जित उस रामने गुरुके वचनको याद किया । (४४) मोहरूपी बादल दूर होने पर प्रतिबोधरूपी निर्मल किरणोंसे युक्त वे दृढ़मतिवाले राम शरत्कालीन चन्द्रमाकी भाँति शोभित हुए । (४५) भूखेने जैसे मनपसन्द भोजन पाया और प्यासेने मानो पानीसे परिपूर्ण सरोवर देखा । (४६) व्याधिसे अत्यन्त पीड़ित शरीरवालेने मानो महौषधि पाई। इसी भाँति दुःखी रामने गुरुके वचनको याद किया । (४७) प्रतिबुद्ध राजा कमलदलके समान प्रफुल्ल नेत्रोंवाला हो गया। वह सोचने लगा कि मोहरूपी अन्धे कुएँ में से मैं बाहर निकला हूँ । (४८) धर्मके परमार्थको ग्रहण करनेवाला उनका मन निर्मल हो गया। मोहरूपी मलपटलसे मुक्त वे शरत्काल में सूर्यबिम्बकी भाँति प्रतीत होते थे । (४९) निर्मल मनवाले रामने मानो दूसरा जन्म पाया । अत्यन्त वैराग्ययुक्त वे संसार स्थितिके बारेमें सोचने लगे । (५०) Jain Education International १. जडागी - प्रत्य० । २. चिय, अइ० - प्रत्य० । ३. ०णयुज्जुत्तो - प्रत्य० । ४. हियं इट्ठ - प्रत्य० ५. ताहोघत्थेण प्रत्य०। ६. परिपु० - प्रत्य० । ७. • लवयणकमलो सो । चि०- प्रत्य• । ८. मोहपडलमलमुक्क - मु० । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001273
Book TitlePaumchariyam Part 2
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages406
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size11 MB
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