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११३. २०]
११३. कल्लाणमित्तदेवागमणंपव्वं भुयपञ्जरोवगूढं, मज्जणपीढे तओ ठवेऊणं । अहिसिञ्चइ सोमित्ति, कञ्चणकलसेईि पउमाभो ॥ ६ ॥ आहरिऊण असेसं. ताहे वाहरइ सूवयारं सो । सज्जेहि भोयणविहिं, सिग्धं मा कुणसु वक्खे ॥ ७॥ आणं पडिच्छिऊणं, करणिज एवमाइयं सर्व । अणुट्टियं तु सिग्धं, सामिहिएणं परियणेणं ॥८॥ सो ओयणस्स पिण्डं, रामो पक्खिवइ तस्स वयणम्मि । नऽहिलसइ नेव पेच्छइ, निणवरधम्म पिव अभवो ॥ ९ ॥ एसा य उत्तमरसा, निययं कायम्बरी तुमं इट्ठा । पियसु चसएसु लक्खण!, उप्पलवरसुरहिगन्धड्डा ॥ १० ॥ वबीस-वंस तिसरिय-वीणा-गन्धव-विविहनडएसु । थुबइ अविरहियं सो, सोमित्ति रामवयणेणं ॥ ११ ॥ एयाणि य अन्नाणि य, करणिजसयाई तस्स पउमाभो । कारेइ मूढहियओ, परिवज्जियसेसवावारो॥ १२ ॥ ताव मुणिऊण एयं. वित्तन्तं वेरिया रणुच्छाहा । चारू य वज्जमाली, रंयणक्खाई य सुन्दसुया ॥ १३ ॥ नंपन्ति अम्ह गुरवं, वहिऊणं तेण अगणियभएणं । पायालंकारपुरे, ठविओ य विराहिओ रजे ॥ १४ ॥ सीयाएँ अवहियाए, लंदणं तत्थ पवरसुग्गीवं । लछेउं लवणनलं, अणेयदीवा विणासेन्तो ॥ १५ ॥ पत्तो चिय विज्जाओ, ताहे चक्केण रावणं समरे । मारेऊण य लङ्का, कया वसे खेयरा सबे ॥ १६ ॥ सो कालचक्कपहओ, सोमित्तो पत्थिओ परं लोगं । रामो वि तस्स विरहे, मोहेण वसीकओ अहियं ॥ १७ ॥ अज्जप्पभूइ वट्टइ, छम्मासो तस्स मोहगहियस्स । वावारवज्जियस्स य, भाइसरीरं वहन्तस्स ॥ १८ ॥ काऊण संपहारं, एवं ते निययसाहणसमग्गा । सन्नद्धबद्धकवया, साएयपुरि समणुपत्ता ॥ १९ ॥
सोऊण बज्जमालिं, समागयं सुन्दपुत्तपरिवारं । रामो वजावतं, बाहरइ कयन्तदण्डसमं ॥ २० ॥ (५) भुजाओंमें आलिंगित लक्ष्मणको स्नानपीठ पर रखकर रामने सोनेके कलशोसे नहलाया। फिर पूर्ण रूपसे आभूषित करके उन्होंने रसोइयेसे कहा कि जल्दी ही भोजनविधि सज्ज करो। देर मत लगाओ। (७) आज्ञा पाकर जो कुछ करणीय था वह सब स्वामीका हित चाहनेवाले परिजनोंने तत्काल किया। (८) रामने चावलका एक कौर उसके मुखमें डाला। जिस तरह अभव्यजीव जिनवरके धर्मको न तो चाहता है और न देखता ही है उसी तरह उसने उस कौरको न तो चाहा और न देखा ही। (8)
हे लक्ष्मण ! उत्तम रसवाली · और सुन्दर कमलोंकी मीठी महकसे युक्त . यह तुम्हारी अतिप्रिय मदिरा है। प्यालोंसे इसे पीओ। (१०) रामके कहनेसे वव्वीस (वाद्यविशेष), बंसी, त्रिसरक (तीन तारवाला वाद्य), वीणा, संगीत तथा विविध नृत्योंसे उस लक्ष्मणकी अविरल स्तुति की गई। (११) मूढ़ हृदयवाले रामने दूसरे सब व्यापारोंका त्याग करके उसके लिए ये तथा दूसरे सैकड़ों कार्य करवाये। (१२)
उस समय यह वृत्तान्त सुनकर युद्धके लिए उत्साही बैरी चारु, वनमाली तथा रत्नाक्ष आदि सुन्दके पुत्र कहने लगे कि भयको न माननेवाले उसने हमारे गुरुजनको मारकर पातालपुरके राज्य पर विराधितको स्थापित किया है। (१३-१४) सीताका अपहरण होने पर प्रवर सुग्रीवको पाकर और लवणसागरको लाँधकर अनेक द्वीपोंका विनाश करते हुए उसने अनेक विद्याएँ प्राप्त की। तब चक्रसे रावणको मारकर लंका और सब खेचरोंको अपने बसमें किया। (१५-२६) कालके चक्रसे आहत होने पर उस लक्ष्मणने परलोककी ओर प्रस्थान किया है। उसके विरहमें राम भी मोहके अत्यन्त वशीभूत हो गये हैं। (१७) मोहसे ग्रस्त, व्यापारोंसे रहित और भाई के शरीरको ढोनेवाले उस रामको आज तक छः मास बीत गये हैं। (१८) इस तरह मंत्रणा करके तैयार होकर कवच बाँधे हुए वे अपनी सेना के साथ साकेतपुरीमें आ पहुँचे । (१९) ।
सुन्दके पुत्र परिवार के साथ वनमाली आया है ऐसा सुन रामने यमदण्ड जैसे वावर्त धनुपको मंगवाया । (२०) लाये गये उस धनुषको इन्होंने ग्रहण किया। फिर लक्ष्मणको गोदमें रखकर रामने शत्रुसेनाके ऊपर
१. जराव०-प्रत्य० । २. विश्खेवं-मुः। ३. परिसैसियसव्ववा०-प्रत्य । ४. ताव सुणि०-प्रत्य० । ५. पयणक्खासंद सुन्द०-प्रत्य०। ६. लखूण य तेण तत्थ सुग्गीवं--प्रत्यः । ७. रामणं--प्रत्य० । ८. कनिहतो, सो०--प्रत्य० । ६. .भो वरं लोग-प्रत्यः ।
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