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________________ पउमचरियं [१११. १५नं तुज्झ हिययइटुं, दवं संपाययामि तं सर्व । सबावारमणहरं, काऊण मुहं समुल्लबसु ॥ १५ ॥ मुश्च विसायं सुपुरिस!, अम्हं चिय खेयरा अइविरुद्धा । सबै वि आगया वि हु, घेत्तुमणा कोसलं कुद्धा ॥१६॥ महयं पि सत्तसेन्नं, जिणयन्तो नो इमेण चक्कणं । सो कह सहसि परिभवं, कयन्तं चक्कस्स धीर तुमं ॥ १७ ॥ सुन्दर ! विमुञ्च निर्दे, वोलीणा सबरी रवी उइओ । देहं पसाहिऊणं, चिट्टसु अत्थाणमज्झगओ ॥ १८ ॥ सबो वि' य पुहइनणो, समागओ तुज्झ सन्नियासम्मि। गुरुभत्त! मित्तवच्छल !, एयस्स करेहि माणत्थं ॥१९॥ निययं तु सुप्पहायं, जिणोण लोगावलोगदरिसी] । भवियपउमाण वि पुणो, जायं मुणिसुबओ सरणं ॥ २० ॥ वच्छ ! तुमे चिरसइए, सिढिलायइ निणहरेसु संगीयं । समणा जणेण समयं, संपत्ता चेव उवेयं ॥ २१ ॥ उद्धेहि सयणवच्छल !, धीरेहि ममं विसायपडिवन्नं । एयावत्थम्मि तुमे, न देइ सोहा इमं नयरं ॥ २२ ॥ णूणं कओ विओगो, कस्स वि जीवस्स अनजम्मम्मि मया । एकोयरस्स वसणं, विमल विहाणस्स पावियं तेण सया।।२३॥ ॥ इइ पउमचरिए रामविप्पलावविहाणं नाम एगादसुत्तरसयं पव्वं समत्तं ।। मा द्रव्य मैं ला देता है। वे सब क्रुद्ध होकर यमके चक्रका परामपके बीच जाकर बैठा और अलोकको देखनेवाले ११२. लक्खणविओगविहीसणवयणपव्वं एत्तो खेयरवसहा, सो" तं जाणिऊण वित्तन्तं । महिलासु समं सिग्धं, साएयपुरि समणुपत्ता ॥ १ ॥ अह सो लङ्काहिवई, बिहीसणो सह सुएहिं सुग्गीवो । चन्दोयरस्स पुत्तो, तहेव ससिवद्वणो सुह्डो ॥ २ ॥ इष्ट हो वह सारा द्रव्य मैं ला देता हूँ। चेष्टाओंसे मुखको मनोहर करके तुम बोलो। (१५) हे सुपुरुष ! तुम विषादका त्याग करो। हमारे जो विरोधी खेचर थे वे सब क्रुद्ध होकर साकेतपुरीको लेनेकी इच्छासे आये हैं। (१६) हे धीर ! जो इस चक्रसे बड़ी भारी शत्रुसेनाको भी जीत लेता था वह तुम यमके चक्रका पराभव कैसे सहोगे ? (१७) हे सुन्दर ! नींद छोड़ो। रात बीत गई है। सूर्य उदित हुआ है । शरीरका प्रसाधन करके सभामण्डपके बीच जाकर बैठो। (१८) हे गुरुभक्त! मित्रवत्सल ! पृथ्वी परके सब लोग तुम्हारे पास आये हैं। इनका सम्मान करो। (१३) लोक और अलोकको देखनेवाले जिनोंके लिए तो सर्वदा सुप्रभात ही होता है, किन्तु भव्यजन रूपी कमलोंके लिए मुनिसुव्रत स्वामी शरणरूप हुए हैं, यही सुप्रभात है। (२०) हे वत्स! तुम्हारे बिना जिनमन्दिरोंमें संगीत शिथिल हो गया है। लोगोंके साथ श्रमण भी उद्विग्न हो गये हैं। (२१) हे स्वजनवत्सल ! तुम उठो। विषादयुक्त मुझे धीरज बँधाओ। तुम्हारे इस अवस्थामें रहते यह नगर शोभा नहीं देता । (२२) दूसरे जन्ममें मैंने अवश्य ही किसी जीवका वियोग किया होगा। उसीसे मैंने विमल भाग्यवाले सहोदर भाईका दुःख पाया है। (२३) ॥ पद्मचरितमें रामके विप्रलापका विधान नामक एक सौ ग्यारहवाँ पर्व समाप्त हुआ। ११२. विभीषणका आश्वासन इस वृत्तान्तको जानकर सभी खेचरराजा शीघ्र ही महिलाओंके साथ, साकेतपुरीमें आ पहुँचे । (१) वह लंकापति विभीषण, पुत्रोंके सायं सुग्रीव, चन्द्रोदरका पुत्र तथा सुभट शशिवर्धन-इन तथा दूसरे बहुत-से आँखोंमें आँसुओंसे युक्त १. पाडयामि तं सव्वं । वावारमणहरं तं, काऊ.-प्रत्य। २. .न्तवक्कस्स-मु०। ३. वि हु पु०-प्रत्य । ४. मा ( ? मो) पंच्छं-प्रत्यः । ५. • यकुमुयाण य पुणो,-प्रत्य। ६. जाणं मु०-मु० । ७. बच्छ! तुमए विरहिए,-प्रत्य० । ८. वयणं- मु.। 8. लपहाणस्स तेण पावियं पि सया-प्रत्य। १०. सरचे ते जा.-प्रत्यः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001273
Book TitlePaumchariyam Part 2
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages406
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size11 MB
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