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________________ १०९. सकसंकहाविहाणपव्वं 11 अह तत्थ कुमाराणं, हणुयस्स य निसुणिऊण पबज्जं । भणइ पउमो हसन्तो, कह भोगाणं विरता ते ॥ १ ॥ सन्ते वि य परिचइउं, भोगे गिण्हन्ति जे हु पबज्जं । नूणं ते गहगहिया, वाऊण विलङ्घिया पुरिसा ॥ २ ॥ अहवा ताण न विज्जा, अत्थि सहीणा पओगमइकुसला । जेणुज्झिऊण भोगा, ठिया य तव-संनमाभिमुहा ॥३॥ एवं भोगसमुद्दे, तस्स निमग्गस्स रामदेवस्स | बुद्धी आसि अइनडा, सेणिय ! उदएण कम्मस्स ॥ ४ ॥ अह अन्नया सुरिन्दो, सहाऍ सीहासणे सुहनिविट्टो । चिट्टइ महिडिजुत्तो, देवसहस्सेहिं परिकिण्णो ॥ ५ ॥ नाणालंकारघरो, धीरो बल - विरिय - तेयसंपन्नो । अह संकहागयं सो, वयणं चिय भाइ देविन्दो ॥ ६ ॥ देवत्तं इन्दत्तं, जस्स पसाएण पवरसिद्धत्तं । लब्भइ तं नमह सया, ससुरासुरवन्दियं अरहं ॥ जेण इमो निस्सारो, संसाररिवू जगे अजियपुबो । संजम संगाममुहे, पावो नाणासिणा निहओ ॥ ८ ॥ कन्दप्पतरङ्गाढं, कसायगाहाउलं भवावत्तं । संसारसलिलनाहं, उत्तारइ जो जणं भवियं ॥ ९ ॥ जायस नस्सतइया, सुमेरुसिहरे सुरेहिं सबेहिं । जणिओ च्चिय अहिसेओ, खीरोयहिवारिकलसेहिं ॥ १०॥ मोहमलपडलछन्नं, पासण्डविवज्जियं नयविहीणं । नाणकिरणेहि सबं, पयासियं जेण तेलोक्कं ॥ ११ ॥ सो जिनवरो सयंभू, भाणु सिवो संकरो महादेवो । विण्हू हिरण्णगन्भो, महेसरो ईसरो रुदो ॥ जो एवमाइएहिं, थुबइ नामेहिं देव - मणुएहिं । सो उसहो नगबन्धू, संसारुच्छेयणं कुणइ ॥ नइ इच्छह अणुहविडं, कल्लाणपरंपरं निरवसेसं । तो पणमह उसहजिणं, सुर-असुरनमंसियं भयवं ॥ १२ ॥ १३ ॥ १४॥ १०९. इन्द्रका वार्तालाप कुमारों और हनुमानकी प्रव्रज्याके बारे में सुनकर हँसते हुए रामने कहा कि वे भोगोंसे क्यों विरक्त हुए ? (२) विद्यमान भोगों को छोड़कर जो प्रव्रज्या लेते हैं वे पुरुष अवश्य ही भूत आदिसे ग्रस्त हैं अथवा वायुसे पीड़ित हैं । (२) अथवा उनके पास प्रयोगमती कुशल विद्या नहीं है, जिससे भोगोंका त्याग करके तप एवं संयम की ओर वे अभिमुख हुए हैं। (३) श्रेणिक ! इस तरह कर्मके उदयसे भोग-समुद्र में निमग्न उन रामकी बुद्धि अतिजड़ हो गई थी । (४) एक दिन बड़ी भारी ऋद्धिसे युक्त और हजारों देवताओं से घिरा हुआ इन्द्र सभामें सिंहासन पर आराम से बैठा हुआ था । (५) नाना अलंकारोंको धारण करनेवाला, धीर तथा बल, वीर्य और तेजसे सम्पन्न उस इन्द्रने वार्तालापके दौरान में यह वचन कहा कि जिसके प्रसादसे देवत्व, इन्द्रत्व और उत्तम सिद्धगति प्राप्त होती है उस सुर-असुर द्वारा वन्दित अरिहन्तको सदा नमस्कार हो । ( ६-७ ) जिसने विश्व में पहले न जीते गये ऐसे इस असार संसाररूपी पापी शत्रुको संयमरूपी समरक्षेत्र में ज्ञानरूपी तलवार से मार डाला है; जो कामरूपी तरंगोंसे युक्त कषायरूपी ग्राहोंसे व्याप्त और भवरूपी श्रावतों से सम्पन्न संसाररूपी सागर से भव्य जीवोंको पार लगाता है; जिसके उत्पन्न होने पर सुमेरु पर्वत के शिखर पर सब देवताओंने मिलकर क्षीरसागर के जलसे पूर्ण कलशों द्वारा अभिषेक किया था; जिसने मोहरूपी मलके पटलसे आच्छादित, धर्मसे रहित और नीतिसे विहीन सारे त्रिभुवनको ज्ञानकी किरणोंसे प्रकाशित किया है वह जिनवर हैं; स्वयम्भू, भानु, शिव, शंकर, महादेव, विष्णु, हिरण्यगर्भ, महेश्वर, ईश्वर और रुद्र ऐसे नामोंसे देव एवं मनुष्यों द्वारा जिनकी स्तुति की जाती है वे जगद्बन्धु ऋषभदेव संसारका नाश करते हैं । ( ८-१३) यदि समग्ररूपसे कल्याणों की परम्पराका अनुभव करना चाहते हो तो सुर एवं असुर द्वारा वन्दित भगवान ऋषभदेवको प्रणाम करो । ( १४ ) अनादि निधन जीव अपने कार्यरूपी पवनसे आहत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001273
Book TitlePaumchariyam Part 2
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages406
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size11 MB
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