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________________ ५५८ पउमचरियं [१०५.८५चझ्या अमरवईए, देवीए कुच्छिसंभवा जाया । ते हेमणाहपुत्ता, विणियाए सुरकुमारसमा ॥ ८५ ॥ महु-केढवा नरिन्दा, जाया तेलोक्पायडपयावा । भुञ्जन्ति निरवसेसं, पुहई जियसत्तुसामन्ता ॥ ८६ ॥ नवरं ताण न पणमइ, भीमो गिरिसिहरदुम्गमावत्थो । उबासेइ य देसं, उइण्णसेन्नो कयन्तसमो ॥ ८७ ॥ वडनयरसामिएणं, भीमस्स भएण वीरसेणेणं । संपेसिया य लेहा, तुरन्ता महुनरिन्दस्स ॥ ८८ ॥ सुणिऊण य लेहत्थ, देसविणासं तओ परमरुट्ठो । निप्फिडइ य महुराया, तस्सुवरि साहणसमग्गो ॥ ८९ ।। अह सो कमेण पत्तो, वडनयरं पविसिउँ कयाहारो । तं वीरसेणभजं, चन्दाभं पेच्छइ नरिन्दो ॥ ९० ॥ चिन्तेइ तो मणेणं, इमाऍ सह नः न भुञ्जिमो भोगे । तो मज्झ इमं रज, निस्सारं निष्फलं 'जीयं ॥११॥ कज्जा-ऽकजवियन्न, पडिसत्तु निजिऊण' संगामे । पुणरवि साएयपुरि, कमेण संपत्थिओ राया ॥ ९२ ॥ काऊण य मन्तणयं, राया पूएइ सबसामन्ते । वाहरइ वीरसेणं, ताहे अन्तेउरसमम्गं ॥.९३ ॥ सम्माणिओ य सो वि य, विसज्जिओ सबनरवइसमग्गो । नवरं चिय चन्दाभा, महुणा अन्तेउरे "छूढा ॥९४॥ अभिसेयपट्टबन्धं, चन्दामा पाविया नरिन्देणं । नाया य महादेवी, सबाण वि चेव महिलाणं ॥ ९५॥ . अह सो महू नरिन्दो, चन्दाभासहगओ तहिं भवणे । रइसागरोवगाढो, गयं पि कालं न लक्खेइ ॥ ९६ ॥ सो य पुण वीरसेणो, हरियं नाऊण अत्तणो कन्तं । घणसोगसल्लियङ्गो, सहसा उम्मत्तओ नाओ ॥ ९७ ॥ एवं अणुहविय चिरं, कन्ताविरहम्मि दुस्सहं दुक्खं । मण्डवसाहुसयासे, पवइओ वीरसेणो सो ॥ ९८ ॥ सो वीरसेणसाह, तवचरणं अज्जिऊण कालगओ । दिवङ्गयमउडधरो, देवो वेमाणिओ जाओ ॥ ९९ ॥ अह सो महू नरिन्दो, चिट्ठइ धम्मासणे सुहनिविट्ठो । मन्तीहिं सहालावं, ववहारवियारणं कुणइ ॥ १० ॥ उपभोग किया। (८४) च्युत होने पर विनीता नगरीमें अमरवती देवीकी कुक्षिसे उत्पन्न वे हेमनाथके देवकुमारके समान सुन्दर पुत्र हुए। (८५) वे मधु और कैटभ राजा तीनों लोकोंमें व्यक्त प्रतापवाले हुए और शत्र-राजाओंको जीना समग्र पृथ्वीका उपभोग करने लगे। (८६) परन्तु पर्वतके शिखर पर आये हुए दुर्गमें स्थित भीम उनके समर मुकता नहीं था। यमके जैसा और प्रबल सैन्यवाला वह देशको उजाड़ने लगा। (८७) वड़नगरके स्वामी वीरसेनने भीमक भयसे मधु राजाके पास फौरन पत्र भेजे। (८८) पत्र में लिखे हुए देशके नाशके बारेमें सुनकर अत्यन्त क्रुद्ध मधुराजा उसके ऊपर आक्रमण करनेके लिए सेनाके साथ निकला (8) क्रमशः चलता हुआ वह वड़नगर पहुँचा। प्रवेश करके भोजन करके. राजाने वीरसेनकी भायों चन्द्राभाको देखा। (80) तब वह मनमें सोचने लगा कि यदि मैं इसके साथ भोग नहीं भोगूंगा तो मेरा यह राज्य निस्सार है और यह जीवन निष्फल है। (६१) कार्य-अकार्यको जाननेवाले उसने विरोधी शत्रुको संग्राममें जीत लिया। राजाने साकेतपुरीकी ओर पुनः क्रमशः प्रस्थान किया। (६२) मंत्रणा करके राजाने सब सामन्तोंका पूजा-सत्कार किया। तब अन्तःपुरके साथ वीरसेनको बुलाया। (६३) सम्मानित उसे भी सब राजाओंके साथ विसर्जित किया, किन्तु मधुने चन्द्राभाको अन्तःपुरमें रख लिया। (६४) राजासे चन्द्राभाने अभिषेक का पट्टबन्ध पाया। सभी महिलाओंकी वह महादेवी हुई। (६५) उस महलमें चन्द्रभाके साथ प्रेमसागरमें लीन वह मधु राजा बीते हुए समयको भी नहीं जानता था। (९६) उधर वह वीरसेन अपनी पत्नीका अपहरण हुश्रा है ऐसा जानकर शरीर में शोकसे अत्यन्त पीड़ित हो सहसा उन्मत्त हो गया। (३७) इस तरह चिरकाल तक पत्नीके विरहमें अत्यन्त दुःखित हो वीरसेन राजाने मण्डप साधुके पास प्रव्रज्या ली । (९८) वह वीरसेन साधु तपश्चर्या करके मरने पर दिव्य अंगद एवं मुकुटधारी वैमानिक देव हुआ। (EE) एक दिन धर्मासन पर सुखपूर्वक बैठा हुआ मधु राजा मंत्रियोंके साथ परामर्श और व्यवहारकी विचारणा कर रहा था । (१००) उस व्यवहारको छोड़कर वह अपने भवन की ओर चला। चन्द्राभाने पूछा कि हे नाथ ! आज विलंब १. सामन्तं-मु०। २. जायं-मु०। ३. •ण समरमुहे । पु०-प्रत्य० । ४. बूढा-मु.। ५. •णो य-प्रत्य० । अह सो महू नरिन्दा, विनीता नगरीमें अमलम व्यक्त प्रतापवाले हुए आभीम उनके समर का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001273
Book TitlePaumchariyam Part 2
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages406
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size11 MB
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