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________________ -५३८ पउमचरियं [१०२. १६० लद्धण वि जिणधम्मे, बोहिं स कुडुम्बकद्दमनिहत्तो । इन्दियसुहसाउलओ, परिहिण्डइ सो वि संसारे ॥१९७॥ एतो कयञ्जलिउडो, परिपुच्छइ राहवो मुणिवरं तं । भयवं! किं भविओ है! केण उवाएण मुच्चिस्सं? ॥१९८॥ अन्तेउरेण समय, पुहई मुश्चामि उदहिपरियन्तं । लच्छीहरस्स नेह, एकं न य उज्झिउं सत्तो ॥ १९९ ॥ अइपणनेहजलाए, दुक्खावताएँ विसयसरियाए । वुज्झन्तस्स • महामुणि । हत्थालम्ब महं देहि ॥ २००॥ भणिओ य मुणिवरेणं, राम ! इमं मुयसु सोयसंबन्धं । अवसेण भुञ्जियबा, बलदेवसिरी तुमे विउला ॥२०॥ भोत्तर्ण उत्तमसुह, इह मणुयभवे सुरिन्दसमसरिसं । सामण्णसुद्धकरणो, केवलनाणं पि पाविहिसि ॥ २०२ ॥ एयं केवलिभणियं, 'सोउं हरिसाइओ य रोमश्चइओ। जाओ सुविमलहियओ, वियसियसयवत्तलोयणो य पउमाभो ॥ २०३ ॥ ॥ इइ पउमचरिए रामधम्मसवणविहाणं नाम दुरुत्तरसयं पव्वं समत्तं ।। १०३. रामपुव्वभव-सीयापव्वज्जाविहाणपव्वं विज्जाहराण राया. बिभीसणो सयलभूसणं नमिउं । पुच्छइ विम्हियहियओ, माहप्पं रामदेवस्स ॥१॥ किं राहवेण सुकर्य, भयवं! समुवज्जियं परभवम्मि ? । जेणेह महारिद्धी, संपत्तो लक्खणसमम्गो ॥ २॥ एयस्स पिया सीया. दण्डारण्णे ठियस्स छिद्देणं । लङ्काहिवेण हरिया, केण व अणुबन्धजोगेणं ! ॥ ३ ॥ करके निर्वाण प्राप्त करता है । (१६६) जिन धर्ममें बोधि प्राप्त करके जो कुटुम्बरूपी कीचड़में निमग्न और इन्द्रियोंके सुखमें लीन रहता है वह भी संसारमें भटकता रहता हैं । (१९७) .. तब रामने हाथ जोड़कर उन मुनिवरसे पूछा कि, हे भगवन् ! क्या में भव्य हूँ? किस उपायसे मैं मुक्त हो सकूँगा? (१६८) अन्तःपुरके साथ समुद्र पर्यन्त पृथ्वीका में परित्याग कर सकता हूँ, पर एक लक्ष्मणके प्रेमका त्याग करने में मैं समर्थ नहीं हूँ। (१६६) हे महामुनि! अत्यन्त सघन स्नेहरूपी जलसे युक्त तथा दुःखरूपी भँवरोंवाली विषय नदीमें डूबते हुए मुझे आप हाथका सहारा दें। (२००) तब मुनिवरने कहा कि हे राम ! इस शोकसम्बन्धका परित्याग करो। बलदेवके विपुल ऐश्वर्यका तुम्हें अवश्य भोग करना पड़ेगा । (२०१) इस मानवभवमें देवोंके इन्द्र सरीखे उत्तम सुखका उपभोग करके श्रामण्यके विशुद्ध आचारसे सम्पन्न तुम केवल ज्ञान भी प्राप्त करोगे । (२०२) केवली द्वारा कथित यह वृत्तांत सुनकर विकसित कमलके समान नेत्रोंवाले राम हर्षित, रोमांचित और विमल हृदयवाले हुए । (२०३) ॥ पद्मचरितमें रामके धर्म-श्रवणका विधान नामक एक सो दूसरा पर्व समाप्त हुआ ॥ सनगम में समर्थ नहीं हूँ । (REET महारा दें। (२००) तब मुनिवरना इस मानवभवमें देवोंके इन्द्र कवाली द्वारा कथित यह १०३. रामके पूर्वभव तथा सीताकी प्रव्रज्या विद्याधरोंके राजा विभीषणने सकलभूषण मुनिको वन्दन करके हृदयमें विस्मित हो रामका माहात्म्य पूछा । (१) हे भगवन् ! रामने परभवमें कौनसा पुण्य उपार्जित किया था जिससे लक्ष्मणके साथ उन्होंने महती ऋद्धि पाई है? (२) दण्डकारण्यमें स्थित इनकी प्रियाका किस पूर्वानुबन्धके योगसे रावणने छलपूर्वक अपहरण किया था ? (३) सर्व कलाओं १. •ताएँ नेहसरि-मु.। २. मोत्तूण-मु.। ३. एवं-प्रत्य०। ४. सुणिउं-प्रत्यः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001273
Book TitlePaumchariyam Part 2
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages406
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size11 MB
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