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________________ २०२. १३३] १०२. रामधम्मसवणविहाणपव्यं वरहार-कडय-कुण्डल-मउडालंकार नेउराईणि । निययं पि भूसणाई, आहरणदुमेसु जायन्ति ॥ ११८ ॥ अट्टसयक्खज्जयजुओ, चउसट्ठी तह य वञ्जणवियप्पा । उप्पज्जइ आहारो, भोयणरुक्खेसु रसकलिओ ॥११९॥ भिङ्गार-थाल-बट्टय-कच्चोलय-वद्धमाणमाईणि । कञ्चण-रयणमयाई, जायन्ति य भायणङ्गेसु ॥ १२० ॥ खोमय-दुगुल्ल-वालय-चीणंसुयपट्टमाइयाई च । वत्थाई बहुविहाई, वत्थङ्गदुमा पणामेन्ति ।। १२१ ॥ कायम्बरी पसन्ना, आसवनोगा तहेव णेगविहा । चित्तंगरसेसु सया, पाणयजोगा उ जायन्ति ॥ १२२ ॥ वीणा-तिसरिय-वेणू-सच्चीसयमाइया सरा विविहा । निययं सवणसुहयरा, तुडियङ्गदुमेसु जायन्ति ॥ १२३ ॥ वरबउल-तिलय-चम्पय-असोय-पुन्नाय-नायमाईणि । कुसुमाइं बहुविहाई, कुसुमङ्गदुमा पणामेन्ति ॥ १२४ ॥ ससि-सूरसरिसतेया, निचं जगजगजगेन्तबहुविडवा । विविहा य दीवियङ्गा, नासन्ति तमन्धयारं ते ॥ १२५ ॥ एयारिसेसु भोग, दुमेसु भुञ्जन्ति तत्थ मिहुणाई । सबङ्गसुन्दराई, वड्डियनेहाणुरायाई ॥ १२६ ॥ आउठिई हेमवए, पल्लं दो चेव होन्ति हरिवासे । देवकुरुम्मि य तिण्णि, एस कमो हवइ उत्तरओ ॥ १२७ ॥ दो चेव धणुसहस्सा, होइ पमाणं तु हेमवयवासे । चत्तारि य हरिवासे, छच्चेव हवन्ति कुरुवाए ॥ १२८ ॥ नय पत्थिवान भिच्चा, न य खुज्जा नेय बामणा पङ्ग । न य मूया बहिरन्धा, न दुक्खिया नेव य दरिद्दा ॥ १२९ ॥ समचउरससंठाणा, वलि-पलियविवज्जियो य नीरोगा। चउसट्टिलक्खणधरा, मणुया देवा इव सुरूवा ॥ १३० ।। ताणं चिय महिलाओ, वियसियवरकमलपत्तनेत्ताओ । सबङ्गसुन्दरीओ, कोमुइससिवयणसोहाओ ॥ १३१ ॥ भुञ्जन्ति विसयसोक्खं, जं पुरिसा तत्थ भोगभूमीसु । कालं चिय अइदीहं, तं दाणफलं मुणेयत्वं ॥ १३२ ॥ दाणं पुण दुवियप्पं, सुपत्तदाणं अपत्तदाणं च । नायब हवइ सया, नरेण इह बुद्धिमन्तेणं ॥ १३३ ॥ मुकुटालंकार तथा नूपुर आदि अलंकार आभरण दूमोंसे उत्पन्न होते हैं। (११८) एक सौ आठ खाद्योंसे युक्त तथा चौसठ प्रकारका व्यंजनवाला रसयुक्त आहार भोजन वृक्षोंसे पैदा होता है। (११९) 'मारी, थाली, कटोरी, प्याले, शराव आदि स्वर्ण एवं रत्नमय पात्र भाजनांगवृक्षोंसे उत्पन्न होते हैं। (१२०) क्षौम, दुकूल, बालके बने वस्र ( ऊनी वस्न) चीनांशुक, पट्ट (सनका कपड़ा) आदि अनेक प्रकारके कपड़े वस्त्रांगद्रम देते हैं। (१२१) कादम्बरी, प्रसन्ना तथा दूसरे अनेकविध आसयों एवं पेय पदार्थोंका लाभ चित्ररसांगोंसे होता है। (१२२) वीणा, त्रिसरिक ( तीन तारोंवाला वाद्य ), बंसी, सञ्चीसक ( वाद्यविशेष ) आदि श्रवणेन्द्रियके लिए सुखकर विविध वाद्य त्रुटितांगद्रमोंसे पैदा होते हैं। (१२३) उत्तम बकुल, तिलक, चम्पक, अशोक, पुन्नाग, नाग आदि विविध पुष्प कुसुमांगद्रम देते हैं। (१२४) चन्द्रमा और सूर्यके समान तेजवाले और विविध प्रकारके नित्य प्रकाशित होनेवाले दिव्यांग वृक्ष अन्धकारको दूर करते हैं। (१२५) सर्वांगसुन्दर और बढ़ते हुए स्नेहानुरागवाले युगल वहाँ ऐसे वृक्षके कारण भोगोंका उपभोग करते हैं। (१२६) आयुकी स्थिति हैमवतमें एक पल्योपमकी हरि वर्पमें दो पल्योपमकी तथा देवकुरुमें तीन सागरोपमकी होती है। उत्तरसे भी यही क्रम है। (१२७) हैमवत क्षेत्रमें दो हजार धनुष जितनी हरिवर्षमें चार हजार धनुप जितनी और देवकुरुमें छः हजार धनुष जितनी ऊँचाई होती है। (१२८) इन क्षेत्रों में न राजा होता है, न भृत्य; न कोई कुबड़ा, बौना, पंगु, मूक, बहिरा, अन्धा होता है और न कोई दुःखी-दरिद्र होता है। (१२९) यहाँके मनुष्य समचतुरस्रसंस्थानवाले, झुर्रियों और सफेद बालोंसे रहित, नीरोग, चौसठ लक्षणोंको धारण करनेवाले और देवोंकी भाँति सुरूप होते हैं। (१३०) उनकी रियाँ खिले हुए उत्तम कमलदलके समान नेत्रोंवाली, सर्वांगसुन्दर और शरत्पूर्णिमाके चन्द्रमाके समान मुखकी शोभासे युक्त होती हैं।(१३१) इन भोगभूमियों में लोग अतिदीर्घकाल पर्यन्त विषय-सुखका जो अनुभव करते हैं वह दानका फल है ऐसा जानो । (१३२) बुद्धिमान पुरुषको दो प्रकारका दान-सुपात्रदान और अपात्रदान सदा जानना चाहिए । (१३३) पाँच १. •णयाईया-क० मु०। २. ०इयाणं च-मु०। ३. रागेणं-प्रत्य०। ४. व य विबुहकुरुषाए-प्रत्य । ५. •या गिरोगा य । च०-प्रत्यः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001273
Book TitlePaumchariyam Part 2
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages406
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size11 MB
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