SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 175
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५३० पउमचरियं [१०२.७२तत्तायससमफरिसा, दुग्गन्धा वज्जसूइअइदुगमा । सीउण्हवेयणा वि य, करवत्त-ऽसिवत्तनन्ता य ॥ ७२ ।। रस-फरिसवसगया जे, पावयरा विगयधम्मसब्भावा । ते च्चिय पडन्ति नरए, आयसपिण्ड पिव जलोहे ॥ ७३ ॥ हिंसा-ऽलिय-चोरिक्काइएसु परजुवइसेवणाईसु । पावं कुणन्ति जे वि हु, भीमं वच्चन्ति ते नरयं ॥ ७४ ॥ सयमेव पावकारी, परं च कारेन्ति अणुमयन्ती य । तिबकसायपरिगया, पडन्ति जीवा धुवं नरए ॥ ७५ ॥ ते तत्थ समुप्पन्ना, नरए दित्तग्गिवेयणा पावा । डज्झन्ति आरसन्ता, वलवलणं चेव कुणमाणा ।। ७६ ॥ तत्तो य अग्गिभीया, वेयरणि जन्ति अइतिसाभूया । पाइज्जन्ति रडन्ता, तत्तं खारोदयं दुरहिं ॥ ७७ ॥ मुच्छागया विउद्धा, असिपत्तवणं तओ य संपत्ता । छिज्जन्ति आउहहिं, उवरोवरि आवयन्तेहिं ॥ ७८ ॥ छिन्नकर-चरण-नङ्का, छिन्नभुया छिन्नकण्ण-नासोट्टा । छिन्नसिर-ताल-नेत्ता, विभिन्नहियया महिं पडिया ॥ ७९ ॥ रजहिं गलनिबद्धा, वलएऊणं च सामलिं पावा । कड्डिजन्ते य पुणो, कण्टयसंछिन्नभिन्नङ्गा ॥ ८ ॥ केइत्थ कुम्भिपाए. पचन्ति अहोसिरा धगधगेन्ता । जन्तकरवत्तछिन्ना, अन्ने अन्नेसु खज्जन्ति ॥ ८१ ॥ असि-सत्ति-कणय-तोमर-सूल-मुसुंढीहिं भिन्नसबङ्गा । विलवन्ति धरणिपडिया, सीहसियालेहि खज्जन्ता ॥ ८२ ॥ एक्कं च तिण्णि सत्त य, दस सत्तरसं तहेव बाबोसा । तेत्तीस उयहिनामा, आउँ रयणप्पभादीसं ॥ ८३ ॥ एवं अणुक्कमेणं, कालं पुढवीपु नरयमज्झगया । अणुहोन्ति महादुक्खं, निमिसं पि अद्धसुहसाया ॥ ८४ ॥ सीउण्हछहातण्हाइयाइं दुक्खाई जाइ तेलोके । सबाई ताई पावइ, जीवो नरए गरुयकम्मो ॥ ८५ ॥ तम्हा इमं सुणेउं, फलं अधम्मस्स तिबदुक्खयरं । होह सुपसन्नहियया, जिणवरधम्मुज्जया निच्चं ॥ ८६ ।। अत्यन्त दुर्गम, शीत और उष्णकी वेदनावाले तथा करवत, असिपत्र एवं यंत्रोंसे युक्त होते हैं। (७२) जो लोग रस एवं स्पर्शके वशीभूत, पापी और धर्मके सुन्दर भावसे रहित होते हैं वे जलाशयमें लोहेके पिण्डकी भाँति नरकमें गिरते हैं। (७३) हिंसा. झूठ, चोरी आदि तथा परस्त्री-सेवन आदि भयंकर पाप जो करते हैं वे नरकमें जाते हैं। (७४) जो स्वयं पाप करते हैं, दूसरेसे करवाते हैं और अनुमोदन करते हैं वे तीव्र कषायमें परिगत जीव अवश्य ही नरकमें जाते हैं। (७५) उन नरकोंमें उत्पन्न वे पापी दीप्त अग्निकी वेदना सहन करते हैं तथा 'मैं जल रहा हूँ, मैं जल रहा हूँ' ऐसा चिल्लाते हुए वे जलते हैं। (७६) आगसे डरे हुए वे प्याससे अत्यन्त अभिभूत होकर वैतरणी नदीके पास जाते हैं। रड़ते हुए उन्हें गरम, खारा और दुर्गन्धयुक्त जल पिलाया जाता है। (७७) मूर्छित वे होशमें आने पर असिपत्रके वनमें जाते हैं। वहाँ लगातार ऊपरसे गिरनेवाले आयुधोंसे वे छिन्न-भिन्न किये जाते हैं। (७८) हाथ, पैर, जाँघ, भुजा, कान, नाक, होंठ, सिर, तालु और नेत्रोंसे छिन्न तथा फटे हुए हृदयवाले वे जमीन पर गिर पड़ते हैं । (७९) गलेमें रस्सीसे बँधे हुए वे पापी शाल्मलिके वनमें लौटाये जाते हैं। वहाँ बिछे हुए काँटोंसे खण्डित शरीरवाले वे फिर खींचे जाते हैं। (८०) धग-धम् आवाज करते हुए कई नीचा सिर करके कुम्भिपाकमें पकाये जाते हैं। यंत्र और करवतसे काटे गये दूसरे अन्य नारकियों द्वारा खाए जाते हैं। (८१) तलवार, शक्ति, कनक, तोमर, शूल, मुसुंढि आदि शस्त्रोंसे सारा शरीर जिनका कट गया है ऐसे ये सिंह और सियारों द्वारा खाये जाते नारकी जीव जमीन पर गिरकर विलाप करते हैं । (८२) रत्नप्रभा आदि नरकोंमें क्रमशः एक, तीन, सात, दस, सत्रह, बाइस और तेत्तीस सागरोपमकी आयु होती है। (८३) इस तरह नरकभूमियोंमें गये हुए जीव समय व्यतीत करते हैं और निमिष मात्रके लिए भी सुख-शान्ति प्राप्त न करके अत्यन्त दुःख अनुभव करते हैं। (८४) तीनों लोकों में शीत, उष्ण, क्षुधा, पिपासा आदि जो दुःख हैं वे सब भारी कर्म करनेवाला जीव नरकमें पाता है। (८५) इसलिए अधर्मका ऐसा तीव्र दुःख देनेवाला फल सुनकर मनमें सुप्रसन्न हो जिनवरके धर्ममें नित्य उद्यमशील रहो। (८६) १. परिणया-मु० । २. रज्जूहि गलयबद्धा-मु.। ३. ०र-मोग्गर-मुसुढीहि भि ५. निययं-मु०। -मु.। ४. व्यालेसु ख.-प्रत्यः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001273
Book TitlePaumchariyam Part 2
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages406
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy