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________________ ५२५ १०२.१७] १०२. रामधम्मसवणविहाणपव्वं जंपिहिइ जणो सबो, जह एसा जणर्यणंदणा सीया । अववायनणियदुक्खा, मया य जलणं पविसिऊणं ॥ ३ ॥ तइया हीरन्तीए, नेच्छन्तीए य सीलकलियाए । लङ्काहिवेण सीसं, किं न लय मण्डलग्गेणं ॥ ४ ॥ एवंविहाएँ मरणं, नइ होन्तं तत्थ नणयतणयाए । निव्वडिओ सीलगुणो, होन्तो य जसो तिहयणम्मि ॥ ५॥ अहवा जं जेण जहा, मरणं समुवज्जियं सयललोए । तं तेण पावियवं, नियमेण न अन्नहा होइ ॥ ६ ॥ एयाणि य अन्नाणि य, चिंतन्तो जाव तत्थ पउमाभो । चिट्ठइ ताव हुयवहो, पज्जलिऊणं समाढत्तो ॥ ७॥ चण्डाणिलाहएणं, धूमेणं बहलकज्जलनिभेणं । छन्नं चिय गयणयलं, पाउसकाले ब मेहेणं ॥ ८॥ असमत्थो च्चिय दटु, तहाविहं मेहिलीऍ उवसम्गं । 'सिग्धं कियालयमणो, दिवायरो कत्थवि पलाणो ॥ ९॥ धगधगधगेन्तसद्दो, पज्जलिओ हुयवहो कणयवण्णो । गाउयपरिमाणासु य, नालासु नहं पदीवेन्तो ॥ १० ॥ किं होज दिणयरसयं, समुग्गय ? किं व महियलं भेत्त । उप्पायनगवरिन्दो, विणिम्गओ दुस्सहपयावो ॥११॥ अइचवलचञ्चलाओ, सबत्तो विप्फुरन्ति जालाओ। सोयामणीउ नज्जइ, गयणयले उग्गतेयाओ ।। १२ ।। एवंविहम्मि जलणे, पज्जलिए उठ्ठिया जणयधूया । काऊण काउसगं, थुणइ जिणे उसभमाईए ॥ १३ ॥ सिद्धा य तहायरिया, साहू जगविस्सुए उवज्झाए । पणमइ विसुद्धहियया, पुणो य मुणिसुवयं सिरसा ॥ १४ ॥ एए नमिऊण महापुरिसा तो भणइ जणयनिवतणया । निसुणन्तु लोगवाला, सच्चेणं साविया सबे ॥ १५ ॥ बइ मण-वयण-तणूणं, रामं मोत्तण परनरो अन्नो । सिविणे वि य अहिलसिओ, तो डहउ ममं इमो अग्गी ॥१६॥ अह पुण मोत्तण पई, निययं अन्नोन आसि मे हियए । तो मा डहउ हुयवहो, जइ सीलगुणस्स माहप्पं ॥१७॥ सब लोग कहेंगे कि अपवादके कारण जिसे दुःख उत्पन्न हुआ है ऐसी जनकनन्दिनी सीताको मैंने आगमें प्रवेश कराया। (३) उस समय अपहृत और शीलसे सम्पन्न होनेके कारण न चाहनेवाली इसका सिर रावणने तलवारसे क्यों नहीं काट डाला। (४) ऐसी सीताका यदि वहाँ मरण होता तो शीलगुण स्पष्ट होता और तीन लोकमें यश हो जाता। (५) अथवा जिसने जो और जैसा मरण उपार्जित किया होता है उसे वैसा मरण सारे लोकमें अवश्य ही मिलता है। वह अन्यथा नहीं हो सकता । (६) ऐसा तथा दूसरा विचार करते हुए राम जब वहाँ बैठे थे तब तो आग जलने लगी । (७) प्रचण्ड वायुसे आहत कृष्णपक्षकी रात और काजलके समान काले धुएँ से, वर्षाकालमें बादल की भाँति, आकाश छा गया। (८) मैथिलीका वैसा उपसर्ग देखने में असमर्थ कृपालु मनवाले सूर्यने भी शीघ्र ही कहीं प्रयाण किया । (६) धग-धग आवाज करती हुई, सोनेकी-सी वर्णवाली तथा कोस भर ऊँची ज्वालाओंसे आकाशको प्रदीप्त करती हुई आग जलने लगी। (१०) क्या सौ सूर्य उगे हैं अथवा क्या पृथ्वीको फाड़कर दुःसह प्रतापवाला और उत्पातजनक ऐसा कोई महान् पर्वत निकल आया है ? (११) अत्यन्त चंचल ज्वालाएँ चारों ओर दहकने लगी। उग्र तेजवाली बिजलियों-सी वे ज्वालाएँ मालूम होती थीं। (१२) ऐसी आग प्रज्वलित होने पर सीता उठी और ध्यान धरकर ऋषभ आदि जिनेश्वरोंकी स्तुति करने लगी। (१३) सिद्धों, विश्वविश्रुत आचार्यों और उपाध्यायोंको विशुद्ध हृदयवाली सीताने प्रणाम किया। पुनः मुनिसुव्रत स्वामीको मस्तक झुकाकर वंदन किया। (१४) इन महापुरुषों को नमस्कार करके जनकराजकी पुत्री सीताने कहा कि सत्यकी सौगन्द दिये गये सब लोकपालो ! तुम सुनो । (१५) यदि मैंने मन, वचन और शरीरसे रामको छोड़कर दूसरे पुरुषकी स्वप्नमें भी अभिलाषा की हो तो मुझे यह अग्नि जला डाले । (१६) और यदि अपने पतिको छोड़कर दूसरा कोई मेरे हृदयमें नहीं था और शीलगुणका माहात्म्य है तो आग मुझे न जलावे । (१७) ऐसा कहकर उस सीताने आगमें प्रवेश किया। १. व्यनंदिणी-मु.। ४. दाऊण--प्रत्य। २. मत्थो इव दट्ठ तहाविहं महिलियाए उ.-मु०। ३. सिग्धं दयालय-मुः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001273
Book TitlePaumchariyam Part 2
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages406
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size11 MB
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