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________________ ५१६ १०१. १] १०१. देवागमविहाणपव्वं एयं कुसुमाउण्णं, सोसं नामेहि वियडधम्मिल्लं । मग्गेण इमेण हले!, पेच्छामि लवं-ऽकुसे जेणं ।। ५२ ॥ तीए वि य सा भणिया, अन्नमणे! चवलचञ्चलसहावे!। विउलं पि अन्तरमिणं, एयं न विपेच्छसि यासे! ॥५३॥ मा थणहरेण पेल्लसु, जोबणमयगबिए ! विगयलज्जे ! । किं मे रूससि बहिणे !!, सबस्सावि कोउयं सरिसं ॥५४॥ अन्ना अन्नं पेल्लइ, अन्ना अन्नाएँ नामए सोसं । अवसारिऊण अन्नं, रियइ गवक्खन्तरे अन्ना ।। ५५ ।। नायरवहूहि एवं, लवणं-ऽकुसरूवकोउयमणाहिं । हलबोलाउलमुहला, भवणगवक्खा कया सबे ॥ ५६ ॥ चन्दद्धसमनिडाला, एए लवणं-ऽकुसा वरकुमारा । आहरणभूसियङ्गा, रामस्स अवट्टिया पासे ॥ ५७ ॥ सिन्दूरसन्निहेहिं, वत्थेहि इमो लवो न संदेहो । दिवम्बरेसु य पुणो, सुगपिच्छसमप्पभेसु कुसो ॥ ५८ ॥ धन्ना सा जणयसुया, जीए पुत्ता इमे गुणविसाला । दूरेण सुकयपुण्णा, जाए होहिन्ति वरणीया ॥ ५९ ।। केई नियन्ति एन्तं, सत्तग्धं केइ वाणराहिवई । अन्ने पुण हणुमन्तं, भामण्डलखेयरं अन्ने । ६० ॥ केई तिकूडसामी, अन्ने य विराहियं नलं नीलं । अङ्ग अङ्गयमाई, नायरलोया पलोएन्ति ॥ ६१ ॥ नायरजणेण एवं, कयजयआलोयमङ्गलसणाहा । वच्चन्ति रायमग्गे, हलहर-नारायणा मुइया ।। ६२ ।। एवं कमेण हल-चक्कहरा सपुत्ता, उद्ध्यचारुचमरा बहुकेउचिन्धा । नारीजणेण कयमङ्गलगीयसद्दा, गेहं नियं विमलकन्तिधरा पविद्या ।। ६३ ॥ ॥ इइ पउमचरिए लवणं-ऽकुससमागमविहाणं नाम सययम पव्वं समत्तं ।। १०१. देवागमविहाणपव्वं अह अन्नया कयाई, विनविओ राहवो नरिन्देहिं । किकिन्धिवइ-मरुस्सुय-बिहीसणाईहि बहुएहिं ॥ १ ॥ तनिक नीचा कर जिससे इस मार्गसे जाते हुए लवण और अंकुशको मैं देख सकूँ। (५२) उस स्त्रीने उसे भी कहा कि, हे अन्यमनस्के ! चपल और चंचल स्वभाववाली! हताश! इतनी बड़ी खाली जगहको भी क्या तू नहीं देखती ? (५३) किसी स्त्रीने दूसरी स्त्रीसे कहा कि यौवनके मदसे गवित और निर्लज ! तू अपने स्तनों के भारसे मुझे मत दवा। इस पर उसने पहली स्त्रीसे कहा कि, बहन! तुम मुझ पर रुष्ट क्यों होती हो? सबके लिए कौतुक समान होता है। (५४) कोई एक स्त्री दूसरी स्त्रीको दबाती थी, कोई दूसरी स्त्रीका सिर नवाती थी तो कोई दूसरीको हटाकर गवाक्षके भीतर जाती थी। (५५) लवण और अंकुशका रूप देखनेकी इच्छावाली नगरवधुओंने इस तरह मकानोंके सब गवाक्ष कोलाहलसे मुखरित कर दिये । (५६) अर्ध चन्द्र के समान ललाटवाले तथा आभूपणोंसे विभूषित शरीरवाले ये कुमारवर लवण और अंकुश रामके पास खड़े हैं। (५७) सिन्दूर सदृश वस्त्रोंसे यह लवण है इसमें सन्देह नहीं रहता और तोतेके पँखके समान कान्तिवाले दिव्य वस्त्रोंसे यह अंकुश ज्ञात होता है । (५८) वह जनकसुता सीता धन्य है जिसके विशाल गुणवाले ये पुत्र हैं और वे तो अत्यन्त पुण्यशालिनी होंगी जिनके द्वारा ये वरणीय होंगे। (५६) कई लग आते हुए शत्रुघ्नको देख रहे थे, तो कई वानराधिपति सुग्रीवको देख रहे थे। दूसरे हनुमानको तो दूसरे कई विद्य घर भामण्डलको देख रहे थे । (६०) कई त्रिकूटस्वामी विभीपणको तो दूसरे नगरजन विराधित, नल, नील, अंग और अंगद आदिको देख रहे थे (६१) इस तरह नगरजनों द्वारा किये जाते जयघोष, दर्शन और मंगलाचारसे युक्त राम र लक्ष्मग आनन्दित हो राजमार्गसे जा रहे थे। (६२) इस प्रकार सुन्दर चँवर डोले जाते, अनेकविध ध्वजाओंसे चित, जियों द्वारा मंगल गाने गाये जाते और निर्मल कीर्तिको धारण करनेवाले राम और लक्ष्म गने पुत्रोंके साथ अपने भवन में अनुक्रमसे प्रवेश किया। (६३) ॥ पद्मचरितमें लवण और अंकुशके समागमका विधान नामक सौवाँ पर्व समाप्त हुआ । १०१. देवोंका आगमन किसी दिन सुग्रीव, हनुमान, विभ प ग अदि वहुतसे राजाओंने राम विनती की कि, हे नाथ! परदेशमें वह Jain Education International ducation International For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001273
Book TitlePaumchariyam Part 2
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages406
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size11 MB
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