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________________ ९८.६२] ९८. लवणं-ऽकुसदेसविजयपव्वं ५०६ रामेण रक्खसवई, जिणिऊणं आणिया तओ सीया । साएया वि य नयरी, सग्गसरिच्छा कया तेहिं ॥ ४६॥ परमिड्विसंपउत्ता, हलहर-नारायणा तहिं रज्जं । भुञ्जन्ति सुरवरा इव, सत्तसु रयणेसु साहीणा ॥ ४७ ॥ अह अन्नया कयाई, जणपरिवायाणुगेण पउमेणं । परपुरिसमणियदोसा, जणयसुया छड्डिया रण्णे ॥ ४८ ॥ कहिऊण य निस्सेसं, वत्तं तो नारओ सरिय सीयं । जंपइ समंसुनयणो, सबनरिन्दाण पच्चक्खं ॥ ४९ ॥ पउमस्स अग्गमहिसी, अट्टहं महिलियासहस्साणं । रयणं व निरुवलेवा, उत्तमसम्मत्त-चारित्ता ॥ ५० ॥ नूर्ण चिय अन्नभवे, पावं समुवज्जियं विदेहाए । तेणेत्थ माणुसत्ते, अणुहूयं दारुणं दुक्खं ।। ५१ ॥ परतत्तिरयस्स इहं, नणस्स अलियं पभासमाणस्स । वासीफलं व जीहा, कह व न पडिया धरणिवढे ? ।। ५२ ।। सुणिऊण वयणमेयं, अणङ्गलवणो मुणिं भणइ एत्तो । साहेहि इहन्ताओ, केदूरे कोसला नयरो ? ॥ ५३ ॥ सो भणइ जोयणाणं, सयं ससद्ध इमाउ ठाणाओ । साएया वरनयरी, जत्थ य परिवसइ पउमाभो ॥ ५४ ॥ सुणिऊण वयणमेयं, भणइ लबो बज्जजङ्घनरवसभं । मामय मेलेहि भडा, सायं जेण वच्चामो ॥ ५५ ॥ एयन्तरम्मि पिहुणा, दिन्ना मयणकुसस्स निययसुया । वत्तं पाणिग्गहणं, तत्थ कुमारस्स तद्दियह ॥ ५६ ॥ गमिऊण एगरत्ति, · तत्तो वि विणिग्गया कुमारवरा । परदेसे य जिणन्ता, पत्ता आलोगनयरं ते ॥ ५७ ॥ तत्तो वि य निग्गन्तुं, अब्भण्णपुरं गया सह बलेणं । तत्थ वि कुबेरकन्तं, जिणन्ति समरे नरवरिन्दं ॥ ५८ ॥ गन्तूण य लम्पागं, देसं बहुगाम-नगरपरिपुण्णं । तत्थ वि य एगकण्णं, नराहिवं निजिणन्ति रणे ॥ ५९ ॥ तं पि य अइक्कमेउं, पत्ता विजयथलिं महानयरिं । तत्थ वि जिणन्ति वीरा, भाइसयं नरवरिन्दाणं ॥ ६० ॥ गङ्गं समुत्तरेउ, कइलासस्सुत्तरं दिसं पत्ता । नाया य सामिसाला, लव-ऽङ्कसा गेयदेसाणं ॥ ६१ ॥ झस-कंबु-कुंत-सीहल-पण-णंदण-सलहंलंगला भीमा । भूया य वोमणा वि य, जिया य बहुवाइया देसा ॥६२॥ दिया। (४६) अत्यन्त ऋद्धिसे युक्त हलधर और नारायण सात रत्नोंसे युक्त हो देवोंकी भाँति वहाँ राज्यका उपभोग करने लगे।(४७) एक दिन लोगोंके अपवादके कारण रामने परपुरुषसे जन्य दोषवाली सीताको अरण्यमें छोड़ दिया। (४८) समग्र वार्ता कहकर और सीताका स्मरण करके अणुयुक्त नयनोंवाले नारदने सब राजाओंके समक्ष कहा कि आठहजार महिलाओं में रत्नके जैसी रामकी पटरानी सीता निर्दोष थी और उत्तम सम्यक्त्व एवं चारित्रसे सम्पन्न थी। (४९-५०) अवश्य ही परभवमें सीताने पाप कमाया होगा। उसीसे इस जन्ममें दारुग दुःखका उसने अनुभव किया (५१) दूसरों की बातोंमें रत और झूठ बोलनेवाले मनुष्यकी जीभ वासी फलके समान ज़मीन पर क्यों न गिर गई ? (३२) यह कथन सुनकर अनंगलवणने मुनिसे पूछा कि यहाँ से साकेतनगरी कितनी दूर है यह आप कहें। (५३) उसने कहा कि इस स्थानसे डेढ़सौ योजन दूर साकेत नगरी है, जहाँ राम रहते हैं। (५४) यह कथन सुन लवणांकुशने वनजंघ राजासे कहा कि, मामाजी! आप सुभट इको करें जिससे हम साकेतकी ओर जायँ । (५५) इस बीच पृथु राजाने मदनांकुशको अपनी लड़की दी। उसी दिन वहाँ कुमारका पाणिग्रहण हुआ। (५६) एक रात बिताकर वहाँसे वे कुमार वर निकल पड़े और दूसरे देशोंको जीतते हुए आलोकनगरमें आ पहुँचे । (५७) वहाँसे भी निकलकर वे सेनाके साथ अभ्यर्णपुर गये। वहाँ भी कुबेरकान्त राजाको युद्धमें जीता । (५८) वहाँसे बहुतसे गाँव और नगरोंसे परिपूर्ण लम्पाक देशमें गये। वहाँ पर भी उन्होंने एककर्ण राजाको युद्धमें हराया। (ह) उसका भी अतिक्रमण कर वे विजयस्थली नामकी महानगरीमें पहुँचे। वहाँ भी उन वीरोंने राजाओंके सो भाइयोंको जीता। (६०) गंगाको पारकर कैलासकी उत्तरदिशामें वे पहुँच गये। इस तरह लवण और अंकुश अनेक देशोंके स्वामी हुए। (६१) उन्होंने झप, कम्बु, कुन्त, सिंहल, पण, नन्दन, शलभ, लंगल, भीम, भूत, वामन तथा बहुवादिक आदि देश जीते । (६२) सिन्धुको पार करके उस पार आये हुए बहुतसे आर्य-अनार्य देश १.०च्छा य तेहिं कया-प्रत्य० । २. मेलेह-प्रत्य० । ३ नरेंदवरं-प्रत्य० । ४. .हमंगला-मु.। ५. पाहणा--प्रत्वः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001273
Book TitlePaumchariyam Part 2
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages406
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size11 MB
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