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१५. सीयासमासासणपव्वं मा रुयसु तुम सीए!, निणसासणतिबभत्तिसंपन्ने । किं वा दुक्खायाणं, अट्टज्झाणं समारुहसि? ॥ ४८ ॥ किंवा तुमे न नाया, लोयठिई एरिसी निययमेव । अधवत्ताऽसरणत्ता. कम्माण विचित्तया चेव ? ॥ ४९ ॥ किं ते साहुसयासे, न सुयं जह निययकम्मपडिबद्धो । जीवो धम्मेण विणा, हिण्डइ संसारकन्तारे? ॥ ५० ॥ संजोय-विष्पओया, सुह-दुक्खाणि य बहुप्पयाराई । पत्ताइ दीहकालं. अणाइनिहणेण जीवेणं ॥ ५१ ॥ खज्जन्तेण जल-थले, सकम्मविष्फण्डिएण जीवेणं । तिरियभवे दुक्खाई, छुह-तण्हाईणि. भुत्ताई ॥ ५२ ।। 'विरहा-ऽववाय-तज्जण-निब्भच्छण-रोय-सोयमाईयं । जीवेण समणुभूयं, मणुएसु वि दारुणं दुक्खं ॥ ५३ ॥ कुच्छियतवसंभूया, देवा दठूण परमसुरविहवं । पावन्ति ते वि दुक्खं, विसेसओ चवणकालंमि ॥ ५४ ॥ नरएम वि उववन्ना, जीवा पावन्ति दारुणं दुक्ख । करवत्त-जन्त-सामलि-वेयरणीमाइयं विविहं ॥ ५५॥ तं नत्थि जणयधूए!, ठाणं ससुरासुरे वि तेलोके । नम्मं मच्च य जरा, जत्थ न जीवेण संपत्ता ॥ ५६ ॥ इह संसारसमुद्दे, नियकम्माणिलहएण जीवेणं । लद्धे वि माणुसत्ते, एरिसियतणू तुमे पत्ता ॥ ५७ ॥ रामस्स हिययइट्टा, अणुहविऊणं सुहं तु वइदेही । हरिया रक्खसवइणा, जिमिया एक्कारसे दिवसे ॥ ५८ ॥ तत्तो वि य पडिवक्खे, निहए पडिआणिया निययठाणं । पुणरवि य सुहं पत्ता, रामस्स पसायनोएणं ॥५९ ॥ असुहोदएण भद्दे !, गब्भादाणेण संजुया सि तुमं । परिवाजलणदहा, निच्छूढा एत्थ आरण्णे ॥ ६० ॥ नो सुसमणआराम, दुबयणग्गी ण डहइ अविसेसो । अयसाणिलेण सो वि य. पुणरुत्तं डज्झइ अणाहो ॥ ६१ ॥ धन्ना तुमं कयत्था, सलाहणिज्जा य एत्थ पुहइयले । चेइहरनमोक्कार, दोहलयं जा समल्लीणा ॥ ६२ ।। अज्ज वि य तुज्झ पुण्णं, अत्थि इहं सीलसालिणी बहुयं । दिट्ठा सि मए नं इह, गयबन्धत्थं पविटेणं ॥ ६३ ॥
दाखके हेतभत आर्तध्यान पर तुम क्यों आरोहण करत हो? (४८) क्या तुम्हें लोककी ऐसी नियत स्थिति, अध्यता, अशरणता तथा कर्मोंकी विचित्रता ज्ञात नहीं है ? (४९) क्या तुमने साधुके पास नहीं सुना कि अपने कर्मोसे जकड़ा हुआ जीव धर्मके विना संसार रूपी जंगलमें भटकता रहता है। (५०) अनादि-अनन्त जीवने संयोग और वियोग तथा बहुत प्रकारके सुख-दुःख दीर्घ काल तक पाये हैं। (५१) जल और स्थलमें खाये जाते तथा अपने कर्मके कारण तड़पते हुए जीवने तिर्यग भवमें भूखप्यास आदि दःख सहे हैं। (५२) विरह, अपवाद, धमकी, भर्त्सना, रोग, शोक आदि दारण दुःख का जीवने मनुष्य भवमें अनभव किया है। (५३) कुत्सित तपसे उत्पन्न देव उत्तम कोटि के देवोंका बभव देखकर और विशेषतः च्यवनके समय दुःख पाते हैं। (५४) नरकोंमें उत्पन्न जीव शाल्मली वृक्षके करवत जैसे पत्रों तथा वैतरणी आदि नाना प्रकारका दारण दःख प्राप्त करते हैं। (५५) हे सीते ! देव और दानवोंसे युक्त इस त्रिलोकमें ऐसा स्थान नहीं है जहाँ जीवने जन्म, जरा और मृत्य नपाई हो। (५६) इस संसारसागरमें अपने कर्मरूपी पवनसे जीव आहत होता है। मनुष्य जन्म पाकरके भी तुमने ऐसा शरीर प्राप्त किया है। (५७) रामकी हृदयप्रिया तुम वैदेहीने सुखका अनुभव किया। राक्षसपतिके द्वारा अपहृत होने पर ग्यारहवें दिन भोजन किया। (५८) उसके अनन्तर शत्रुओंके मारे जाने पर तुम अपने स्थान लाई गई। रामके अनुग्रहसे पुनः तुमने सुख पाया । (५६) हे भद्रे ! गर्भवती होने पर भी अशुभ कर्मके योगके कारण बदनामीकी आगसे जली हुई तम इस वनमें छोड़ दी गई हो । (६०) जो सुश्रमण रूपी उद्यान दुर्वचनरूपी आगसे ज़रा भी नहीं जलता वह भी अनाथ अपयशरूपी वायुसे जलता है । (६१) तुम इस धरातल पर धन्य हो, कृतार्थ हो और श्लाघनीय हो, क्योंकि चैत्यग्रहोमें नमस्कार करनेका दोहद तुम्हें हुआ। (६२, हे शीलशालिनी ! आज भी तुम्हारा बहुत पुण्य है कि हाथियोंको यहाँ बाँधनके लिए प्रविष्ट मेरे द्वारा तुम देखी गई हो । (६३) सोमवंशका पुत्र गजवाहन नामका राजा था। उसकी स्त्री सुबन्धु
१. संजुत्ते ! किं वा दुक्खाययणं-प्रत्य०। उण य सुह-प्रत्य०। ५. दियहे-प्रत्य०।
२. विविहा.-प्रत्य.। ६. पड़ियागया-मु०।
३. ०ण मणुयजम्मे, अणुहूयं दारुणं-प्रत्यः । ७. •वाओरगदहा, नि०-मु.।
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