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________________ ४६० पउमचरियं ॥ ॥ २६ ॥ २७ ॥ २८ ॥ २९ ॥ ३० ॥ ३१ ॥ जेट्टस्स निच्छ्यं सो, नाऊणं लक्खणो गओ सगिहं । ताव य कयन्तवयणो, समागओ रहवरारूढो सन्नद्धबद्धकवर्य, नन्तं सेणावई पलोएउं । नंपइ जणो महलं, कस्स वि अवराहियं जायं ॥ संपत्तो य खणेणं, पउमं विन्नवइ पायवडिओ सो । सामिय ! देहाणति, ना तुज्झ अवट्टिया हियए तं भणइ पउमनाहो, सीयाऍ डोहलाहिलासाए । दावेहि जिणहराई, सम्मेयाईसु बहुयाई ॥ अडविं सोहनिणायं, बहुसावयसंकुलं परमघोरं । सीयं मोत्तूण तहिं पुणरवि य लहुं नियत्तेहि ॥ नं आणवेसि सामिय !, भणिणं एव निग्गओ सिग्धं । संपत्तो कर्याविणओ, कयन्तवयणो भणइ सीयं ॥ सामिण ! उद्धेहि लहुं, आरुहसु रहं केरेसु नेवच्छं । बन्दसु निणभवणाई, पुहइयले लोगपुज्जाई ॥ सेणावईण एवं जं भणियां नाणई तओ तुट्टा । सिद्धाण नमोक्कारं, काऊण रहं समारूढा ॥ नं किंचि पमाएणं, दुच्चरियं मे कयं अपुण्णाए । मरिसन्तु तं समत्थं, निणवरभवणट्टिया देवा ॥ आपुच्छिऊण सयलं, सहीयणं परियणं च वइदेही । जंपइ निणभवणारं, पणमिय सिग्धं नियत्तामि ॥ एत्थन्तरे रहो सो, कयन्तवयणेण चोइओ सिग्धं । चउतुरयसमाउत्तो, वच्चइ मणपवर्णं समवेगो ॥ अह सुक्कतरुवरत्थं दित्तं पक्खावलिं विहुणमाणं । दाहिणपासम्मि ठियं, पेच्छइ रिट्ठ करयरन्तं ॥ सूराभिमुही नारी, विमुक्क केसी बहु विलवमाणी । तं पेच्छइ जणयसुया, अन्नाइ वि दुण्णिमित्ताई ॥ ३६ ॥ निमिसियमेत्तेण रहो, उल्लङ्घइ जोयणं पवणवेगो । सीया वि पेच्छइ महिं, गामा- ऽगर-नगर-पडिपुण्णं ॥ ३७॥ सा एवं वच्चन्ती, निज्झरणारं च सलिलपुण्णाई । पेच्छइ सराइ सीया, वरपङ्कयकुसुमछन्नाई ॥ ३८ ॥ कत्थइ तरुघणगहणं, पेच्छइ सा सबरीतमसरिच्छं । कत्थइ पायवरहियं, रणं चिय रणरणायन्तं ॥ ३९ ॥ ३२ ॥ ३३ ॥ ३४ ॥ ३५ ॥ [ ६४.२४ सवार हो आ गया। (२४) तैयार हो कवच पहने हुए सेनापतिको जाते देख लोग कहने लगे कि किसीने बड़ा भारी अपराध किया है । (२५) क्षण भरमें वह आ पहुँचा। पैरोंमें गिरे हुए उसने रामसे विनती की कि, हे स्वामी ! आपके हृदयमें जो हो उसके बारेमें आप मुझे आज्ञा दें । (२६) उसे रामने कहा कि दोहदकी अभिलापावाली सीताको सम्मेतशिखर आदिमें बहुत-से जिनमन्दिरोंका दर्शन कराओ । (२७) वहाँ सिंहके निनादसे निनादित, अनेक जंगली जानवरोंसे भरे हुए और अत्यन्त घोर अटवीमें सीताको छोड़कर तुम जल्दी ही वापस लौटो । (२८) हे स्वामी ! जैसी आज्ञा । ऐसा कहकर वह जल्दी ही बाहर आया । सीताके पास पहुँचकर विनयपूर्वक कृतान्तवदनने कहा कि, स्वामिनी ! आप जल्दी उठें, वस्त्र परिधान करें, रथ पर आरूढ हों और पृथ्वीतल पर आये हुए लोकपूज्य जिनभवनोंको वन्दन करें । (२६-३०) सेनापतिके द्वारा ऐसा कहने पर जानकी प्रसन्न हुई और सिद्धोंको नमस्कार करके रथ पर आरूढ़ हुई । ( ३६ ) उसने मन मन कहा कि पुण्यशालिनी मैंने प्रमादवश जो दुश्चरित किया हो उसे जिनमन्दिरों में रहे हुए समस्त देव क्षमा करें। (३२) सभी सखियों और परिजनों की अनुमति लेकर सीताने कहा कि जिनभवनोंको वन्दन करके मैं शीघ्र ही वापस आ जाऊँगी । (३३) Jain Education International २४ ॥ २५ ॥ तब कृतान्तवदनने वह रथ जल्दी चलाया । चार घोड़ोंसे युक्त तथा मन और पवनके वेगके जैसा तेज वह रथ चल पड़ा । (३४) उसने सूखे पेड़ पर बैठे हुए, गर्वित, पंख फड़फड़ाते, दाहिनी ओर स्थित और काँव-काँव करते हुए एक कौवे को देखा । (३५) सूर्यकी ओर अभिमुख, बाल बिखेरे हुई और बहुत विलाप करती हुई स्त्री तथा दूसरे दुर्निमित्तोंको सीताने देखा । ( ३६ ) निमिषमात्र में पवनवेग रथ एक योजन लाँघ गया । सीताने भी ग्राम, आकर, नगरसे युक्त ऐसी पृथ्वी देखी । (३७) इस प्रकार जाती हुई उस सीताने पानी से भरे करने तथा सुन्दर कमल पुष्पोंसे आच्छन्न सरोवर देखा । (३८) उसने कहीं पर रात्रिके अन्धकार के समान सघन वृक्षोंसे युक्त वन देखा, तो कहीं पर वृक्षोंसे रहित और आहें भरता हुआ १. • जो उच्चलिओ र० - प्रत्य० । २. करेहि ने० - प्रत्य० । ३. ० या महिलिया तभो - मु० । ४. ०णवेगो सो - प्रत्य० । ५. मही, बहुसावयसंकुलं भीमं - मु० । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001273
Book TitlePaumchariyam Part 2
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages406
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size11 MB
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