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________________ ४५८ पउमचरियं ३६ ॥ ३७ ॥ ३८ ॥ मूलं दुच्चरियाणं, हवइ य नरयस्स वत्तणी विउला । मोक्खस्स महाविग्धं, वज्जेयबा सया नारी ॥ धन्ना ते वरपुरिसा, जे च्चिय मोत्तूण निययजुवईओ । पवइया कयनियमा, सिवमयलमणुत्तरं पत्ता ॥ याणि य अन्नाणि य, चिन्तेन्तो राहवो बहुविहाईं । न य आसणे न सयणे, कुणइ धिरं नेव वरभवणे ॥ नेहा ऽववायभयसंगयमाणसस्स, वामिस्सतिबरसवेयवसीकयस्स । रामस्स धीरविमलस्स वि तिवदुक्खं, जायं तया नणयरायसुयानिमित्तं ॥ ३९ ॥ ॥ इइ पउमचरिए जणचिन्ताविहाणं नाम तेणउयं पव्वं समत्तं ॥ ९४. सीयानिष्वासणपव्वं अह सो एयट्टमणं, काऊणं लक्खणस्स पडिहारं । पेसेइ पउमनाहो, नणवय परिवायपरिभीओ ॥ १ ॥ पडिहारसहिओ सो, सोमित्ती आगओ पउमनाहं । नमिऊण समब्भासे, उवविट्ठो भूमिभागम्मि ॥ २ ॥ भूगोयरा अणेया, सुहडा सुग्गीवमाइया एत्तो । अन्ने वि जहाजोगं, आसीणा कोउहल्लेणं ॥ ३ ॥ काऊण समालावं, खणन्तरं लक्खणस्स बलदेवो । सोहइ जणपरिवार्य, सीयाए दोससंभूयं ॥ ४ ॥ सुणिऊण वयणमेयं, जंपर लच्छीहरो परमरुट्टो । मिच्छं करेमि पुहई, लुयनीहं तक्खणं चेव ॥ ५ ॥ मेरुस्स चूलिया इव, निक्कम्पा सीलधारिणी सीया । लोएण निग्घिणेणं, कह परिवायग्गिणा दड्ढा ? ॥ ६ ॥ लोयस निहं सो, समुच्छहन्तो समहुरवयणेहिं । संथाविओ कणिट्टो, रामेणं बुद्धिमन्तेणं ॥ ७ ॥ [ ६३. ३६ सकता है । (३५) स्त्री दुश्चरितोंका मूल, नरकका विशाल मार्ग और मोक्षके लिए महाविघ्नरूप होती है; अतः स्त्रीका सर्वदा त्याग करना चाहिए। (३६) वे उत्तम पुरुष धन्य हैं जो अपनी युवतियों का त्याग करके प्रनजित हुए हैं तथा नियमों का आचरण करके अचल एवं अनुत्तर मोक्षमें पहुँच गये हैं । (३७) इन और ऐसे ही दूसरे बहुत प्रकारके विचार करते हुए रामको न आसन पर न शय्या पर और न उत्तम भवनमें धीरज बँधती थी । (३) स्नेह और अपवादके भयसे युक्त मानसवाले तथा एक दूसरेमें मिले हुए तीव्र अनुराग और वेदनाके वशीभूत ऐसे धीर और निर्मल रामको भी जनकराजकी पुत्री सीताके निमित्तसे तीव्र दु:ख हुआ । (३) ॥ पद्मचरित में जनचिन्ताविधान नामक तिरानवेयाँ पर्व समाप्त हुआ ॥ ९४. सीताका निर्वासन लोगों की बदनामी से भयभीत रामने मनमें निश्चय करके लक्ष्मणके पास प्रतिहारीको भेजा । (१) प्रतिहारीके साथ वह लक्ष्मण आया। रामको प्रणाम करके समीपमें वह जमीन पर खड़ा रहा । (२) भूमि पर विचरण करनेवाले मानव ) सुभट, सुग्रीव आदि तथा दूसरे भी यथायोग्य स्थान पर कुतूहल वश बैठ गये । (३) थोड़ी देर तक बातचीत करके बलदेव रामने लक्ष्मणसे सीता के दोषसे उत्पन्न जनपरिवाद के बारे में कहा । (४) यह वचन सुनकर अत्यन्त रुष्ट लक्ष्मणने कहा कि मैं फ़ौरन ही मिथ्याभाषी पृथ्वीको छिन्न जिह्वावाली वना देता हूँ । (५) शीलधारिणी सीता मेरुकी चूलिकाकी भाँति निष्प्रकम्प है । निर्दय लोगोंने परिवाद रूपी अग्निसे उसे कैसे जलाया है ? (६) तब लोक का निग्रह करने के लिए उत्साहशील उस छोटे भाईको बुद्धिमान् रामने सुमधुर वचनों से शान्त किया । (७) उन्होंने कहा कि ऋषभ, भरत जैसे इक्ष्वाकुल के १. जंपइ जण प्रत्य० । २. • हयजीहं तक्खणं सव्वं प्रत्य० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001273
Book TitlePaumchariyam Part 2
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages406
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size11 MB
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