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________________ ९१.१] ६१. राम-लक्खणविभूइपव्वं रयणरहेण समाणं, भग्गं ठूण नारओ सेन्नं । अङ्गाइ विप्फुरन्तो, हसइ च्चिय कहकहारावं ॥ २० ॥ एए ते अइचवला, दुच्चेट्ठा खेयराहमा खुद्दा । पलयन्ति पवणवेगा, लक्खणगुणनिन्दया पावा ॥ २१ ॥ पियरं पलायमाणं, दठूण मणोरमा रहारूढा । 'पुवं सिणेहहियया, सहसा लच्छीहरं पत्ता ॥ २२ ॥ सा भणइ पायवडिया, मुञ्च तुमं भिउडिभङ्गरं कोवं । एयाण देहि अभयं, लच्छीहर ! मज्झ सयणाणं ॥ २३ ॥ सोमत्तणं पवन्ने, चक्कहरे आगओ सह सुएहिं । रयणरहो कयविणओ; समाहिओ राम-केसीहिं ॥ २४ ॥ रयणरहं भणइ तओ, हसिऊणं नारओ अइमहन्तं । भडवोक्कियं कहिं तं, तुज्झ गयं जं पुरा भणियं ॥ २५ ॥ एवं रयणरहेणं पडिभणिओ नारओ तुमे कोवं । नीएण अम्ह जाया, उत्तमपुंरिसेसु सह पीई ॥ २६ ॥ अह ते रयणरहेणं हलहर-नारायणा पुरि निययं । ऊसियधयापडाय, पवेसिया कणयपायारं ॥ २७ ॥ दिन्ना कणयरहेणं, सिरिदामा हलहरस्स वरकन्ना । लच्छीहरस्स वि तओ, मणोरमा सबगुणपुण्णा ॥ २८ ॥ वत्तं पाणिग्गहणं, कमेण दोण्हं पि परमरिद्धोए । विज्जाहरीहि समयं, रयणपुरे राम-केसीणं ॥ २९ ॥ एवं पयण्डा वि अरी पणाम, वच्चन्ति पूण्णोदयदेसकाले । नरस्स रिद्धी वि हु होइ तुङ्गा, तम्हा, खु धम्म विमलं करेह ॥ ३० ॥ ।। इइ पउमचरिए मणोरमालम्भविहाणं नाम नइयं पव्वं समत्तं ।। ९१. राम-लक्खणविभूइपव्वं अन्ने वि खेयरभडा, वेयड्ढे दाहिणाएँ सेढीए । निवसन्ति लक्खणेणं, ते सधे निज्जिया समरे ॥ १ ॥ नारद अंगोंको हिलाता हुआ खिलखिलाकर हँसा । (२०) उसने कहा कि ये तेरे अतिचपल, दुध आचारवाले, क्षुद्र, लक्ष्मणकी निन्दा करनेवाले, पापी और अधम खेचर पवनके वेगकी भाँते भाग रहे हैं । (२१) पिताको भागते देख पहलेसे हृदय में स्नेह रखनेवाली मनोरमा रथ पर श्रारूढ़ हो सहसा लक्ष्मणके पास आई । (२२) उसने पैरों में गिरकर कहा कि, हे लक्ष्मण! तुम कुटिल भ्रुकुटिवाले क्रोधका त्याग करो। इन मेरे स्वजनोंको तुम अभय दो। (२३) चक्रधर लक्ष्मणके सौम्यभाव धारण करने पर पुत्रोंके साथ रत्नरथ आया। प्रणाम आदि विनय करनेवाले उसके मनको राम और लक्ष्मणने स्वस्थ किया । (२४) तब नारदने हँसकर रत्नरथसे कहा कि जिसका तुमने पहले निर्देश किया था वह तम्हारी शरोंकी बड़ी भारी ललकार कहाँ गई ? (२५) इस पर रत्नरथने नारदसे कहा कि तुमने क्रोध कराया उससे हमारी उत्तम पुरुषोंके साथ प्रीति हुई है। (२६) इसके बाद रत्नरथने ऊँचे उठी हुई ध्वजा-पताकाओं तथा सोनेके प्राकारवाली अपनी नगरीमें राम एवं लक्ष्मणका प्रवेश कराया। (२७) कनकरथने रामको श्रीदामा नामकी उत्तम कन्या दी। बादमें लक्ष्मणको भी सर्वगुणसम्पन्न मनोरमा दी गई । (२८) दोनों राम एवं लक्ष्मणका विद्याधरियोंके साथ खूब ठाठबाठसे रत्नपुरमें पाणिग्रहण हा। (२६) इस तरह पुण्योदयके समय प्रचण्ड शत्रु भी प्रणाम करते हैं और लोगोंको विपुल ऋद्धि प्राप्त होती है। अतः तुम विमल धर्मका आचरण करो। (३०) ॥ पद्मचरितमें मनोरमाका प्राप्ति-विधान नामक नब्बेवाँ पर्व समाप्त हुआ। ९१. राम एवं लक्ष्मणकी विभूति वैताढ्य पर्वतकी दक्षिण श्रेणी में जो दूसरे खेचर-सुभट रहते थे उन सबको भी लक्ष्मणने युद्ध में जीत लिया। (१) १. पुचि-प्रत्य० । २. राम-केसीणं-प्रत्य० । ३. • पुरिसेण स० मु.। ६१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001273
Book TitlePaumchariyam Part 2
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages406
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size11 MB
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