________________
८६. ४० ]
८. महुरानिवेसपव्वं
॥
३१ ॥
धिद्धित्तिमूढभावो, अहयं सम्मत्तदंसणविहूणो । अविदियधम्माधम्मो, मिच्छत्तो नत्थि मम सरिसो ॥ अट्टा काउं, न वन्दिया जं मए मुणिवरा ते । तं अज्ज वि दहइ मणो, नंचिय न य तप्पिया विहिणा ॥ दट्ठूण साहुरूवं, जो न चयइ आसणं तु सयराहं । जो अवमण्णइ य गुरुं, सो मिच्छत्तो मुणेयबो ताव च्चिय हयहिययं, डज्झिहिइ महं इमं खलु सहावं । नाव न वि वन्दिया ते, गन्तूण सुसाहवो सबे अह सो तग्गयमणसो, नाऊणं कत्तिगी समासन्ने । निणवन्दणाएँ सेट्टी, उच्चलिंओ धणयसमविभवो ॥ रह-गय-तुरङ्गमेहिं, पाइकसएहि परिमिओ सेट्टी । पत्तो सत्तरिसिपयं, कत्तिगिमलसत्तमी ए उ ॥ सो उत्तमसम्मत्तो, मुणीण काऊण वन्दणविहाणं । विरएइ महापूर्य, तत्थुद्देसम्म कुसुमेहिं ॥ ३२ ॥ नड-नट्ट-छत्त-चारण-पणच्चि उग्गीय मङ्गलारावं । सत्तरिसियासमपयं, सग्गसरिच्छं कर्यं रम्मं ॥ ३३ ॥ तुम्कुमारो विय, सुणिऊणं मुणिवराण वित्तन्तं । जणणीऍ समं महुरं, संपत्तो परियणापुण्णो ॥ ३४ ॥ सौहूण वन्दणं सो, काऊणाऽऽवासिओ तहिं ठाणे । विउलं करेइ पूयं, पडुषडह-मुइङ्गसद्दालं ॥ ३५ ॥ साहू समत्तनियमा, भणिया सत्तुग्घरायपुत्तेणं । मज्झ घराओ भिक्खं, गिण्हह तिवाणुकम्पा ॥ समणुत्तमेण भणिओ, नरवइ ! कयकारिओ पयत्तेणं । न य कप्पर आहारो, साहूण विसुद्धसीलाणं ॥ अकया अकारिया वि य, मणसाऽणणुमोइया य ना भिक्खा । सा कप्पइ समणाणं, धम्मधुरं उवहन्ताणं ॥ भइ तओ सत्तुग्धो, भयवं जइ मे न गेण्हह घरम्मि । केत्तियमित्तं पि इहं, अच्छह कालं पुरवरीए ॥ तुब्भेत्थ आगएहिं, समयं रोगेहि ववगया मारी । नयरी वि सुहसमिद्धा, नाया बहुसासपरिपुणा ॥
३६ ॥
३७ ॥
३८ ॥
३९॥
४० ॥
॥
२६ ॥
२७ ॥
२८ ॥
२९ ॥
३० ॥
।
धर्म-अधर्मको न जाननेवाला और मिथ्यात्वी हूँ । मेरे जैसा दूसरा कोई नहीं है । (२५-२६) उठ करके मैंने जो उन मुनिवरों को वन्दन नहीं किया था और जो विधिपूर्वक दान श्रादिसे तृप्त नहीं किया था वह आज भी मेरे मन को जलाता है । (२७) साधुके आकार को देखकर जो तत्काल आसनका त्याग नहीं करता और जो गुरुका अपमान करता है उसे मिथ्यात्वी समझना चाहिए। (२८) मेरा यह हृदय स्वाभाविक रूपसे तबतक जलता रहेगा जबतक मैं जा करके उन सब सुसाधुओंको वन्दन नहीं करूँगा (२६)
Jain Education International
४७७
इस प्रकार उन्हीं में लगे हुए मनवाला और कुवेरके समान वैभवशाली वह सेठ कार्तिकी पूर्णिमा समीप है ऐसा जानकर जिलेश्वर भगवानोंके वन्दनके लिए चला । (३०) रथ, हाथी एवं घोड़ों तथा सैंकड़ों पदातियोंसे घिरा हुआ वह सेठ उन सात ऋषियोंके स्थान पर कार्तिक मासकी कृष्ण सप्तमीके दिन पहुँचा । (३१) उत्तम सम्यक्त्ववाले उसने मुनियोंको विधिपूर्वक वन्दन करके उस प्रदेश में पुष्पोंसे महापूजा की रचना की । (३२) नट, नर्तक और चारणों द्वारा किये गये नृत्य, गीत एवं मंगलध्वनिले युक्त वह सप्त ऋषियों का आश्रमस्थान स्वर्ग जैसा रम्य बना दिया गया । (३३)
For Private & Personal Use Only
सुनिवरोंका वृत्तान्त सुनकर परिजनों से युक्त शत्रुघ्नकुमार भी माताओं के साथ मथुरानगरी में आ पहुँचा । (३४) साधुओं को वन्दन करके उसी स्थानमें वह ठहरा और भेरी एवं मृदंगसे अत्यन्त ध्वनिमय ऐसी उत्तम पूजा की। (३५) जिनका नियम पूरा हुआ है ऐसे साधुओंसे राजकुमार शत्रुघ्न ने कहा कि अत्यन्त अनुकम्पा करके आप मेरे घरसे भिक्षा ग्रहण करें । (३६) इस पर एक उत्तम श्रमणने कहा कि, हे राजन! प्रयत्नपूर्वक किया अथवा कराया गया आहार विशुद्धशील साधुओं के काममें नहीं आता । (३७) जो स्वयं न की गई हो, न कराई गई हो और मनसे भी जिसका अनुमोदन न किया गया हो ऐसी भिक्षा धर्मधुराका वहन करने वाले श्रमणों के कामकी होती है। (३८) तब शत्रुघ्नने कहा कि, भगवन् ! यदि आप मेरे घर से नहीं लेंगे तो इस नगरी में आप कितने समय तक रहेंगे ? (३६) आपके यहाँ आनेसे रोगोंके साथ महामारि भी दूर हो गई है और नगरी भी सुखसे समृद्ध तथा नाना प्रकार के धान्योंसे परिपूर्ण हो गई है । (४०)
१. काउं जंण मए वंदिया मुनिवरा ते । अब वितं हइ मणो ज च्चिय न -- प्रत्य ० । २. •ओ भिवइसम ० प्रत्य• । काऊण वंदणं सो, साहूणाsso - प्रत्य० ।
३.
www.jainelibrary.org