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________________ ८९.९] ८९. महुरानिवेसपवं एसो ते परिकहिओ, सेणिय पुच्छन्तयस्स विणएणं । सत्तग्घभवसमूहो, कयन्तवयणेण सहियस्स ॥ ४२ ॥ एयं परंपरभवाणुगयं सुणेउं, जो धम्मकज्जनिरओ न य होइ लोए । सो पावकम्मपरिणामकयावरोहो, ठाणं सिवं सुविमलं न उवेइ मूढो ॥ ४३ ॥ ॥ इइ पउमचरिए सत्तुग्घकयन्तमुद्दभवाणुकित्तणं नाम अट्ठासीयं पव्वं समत्तं ।। ८९. महुरानिवेसपव्वं अह अन्नया कयाई, विहरन्ता मुणिवरा गयणगामी । महुरापुरि कमेणं, सत्त जणा चेव अणुपत्ता ॥ १ ॥ सुरमतो सिरिमंतो. सिरितिल ओ सबसुन्दरो चेव । जयमन्तोऽणिलललिओ, अवरो वि य हवइ जयमित्तो ॥२॥ सिरिनन्दणस्स एए. सत्त वि धरणीएँ कुच्छिसंभूया । नाया नरवइपुत्ता, महापुरे सुरकुमारसमा ॥ ३ ॥ पीतिकरस्स एए, मुणिस्स दठूण सुरवरागमणं । पियरेण सह विउद्धा, सबै धम्मुज्जया जाया ॥ ४ ॥ सो एगमासजायं. ठविऊणं डहरयं सुर्य रज्जे । पवइओ सुयसहिओ, राया पीतिकरसयासे ॥ ५ ॥ केवललद्धाइसओ, काले सिरिनन्दगो गओ सिद्धिं । इयरे वि सत्त रिसिया, कमेण महुरापुरि पत्ता ॥ ६ ॥ ताव चिय घणकालो, समागओ मेहमुक्कजलनिवहो । जोगं लएन्ति साहू, सत्त विते तीए नयरीए ॥ ७॥ सा ताण पभावेणं. नट्टा मारी सुराहिवपउत्ता । पुहई वि सलिलसित्ता, नवसाससमाउला जाया ॥ ८ ॥ महरा देसेण समं, रोगविमुक्का तओ समणुजाया । पुण्डुच्छवाडपउरा, अकिट्ठसस्सेण सुसमिद्धा ॥९॥ पर्वक पद्धते हए तझको मैंने कृतान्तवदन के साथ शत्रुघ्नका यह भवसमूह कहा । (४२) इसप्रकार परम्परासे चले आते भवोंके बारेमें सनकर जो लोकमें धर्मकार्य में निरत नहीं होता वह पापकमके परिणाम स्वरूप बाधा प्राप्त करनेवाला मूढ़ पुरुष अत्यन्त विमल शिवस्थान नहीं पाता। (४३) ॥ पद्मचरितमें शत्रुघ्न एवं कृतान्तमुखके भवोंका अनुकीर्तन नामक अट्टासीवाँ पर्व समाप्त हआ ॥ ८९. शत्रुघ्नका मथुरामें पड़ाव एक दिन अनुक्रमसे विहार करते हुए गगनगामी सात मुनि मथुरा नगरीमें आये । (१) सुरमन्त्र, श्रीमन्त्र, श्रीतिलक, सर्वसुन्दर, जयवान्, अनिलललित और अन्तिम जयमित्र ये उनके नाम थे। (२) महापुरमें श्रीनन्दनकी भार्या धरणीकी कुक्षिसे उत्पन्न ये सातों ही राजपुत्र देवकुमारके समान थे। (३) प्रीतिकर मुनिके पास देवताओंका आगमन देखकर पिताके साथ प्रतिबुद्ध ये सब धर्मके लिए उद्यत हुए (४) एक महीनेके बालकपुत्रको उस राज्य पर स्थापित करके पुत्रोंके साथ राजाने प्रीतिंकरके पास प्रव्रज्या ली। (५) केवल ज्ञानका अतिशय प्राप्त करके मरने पर श्रीनन्दन मोक्षमें गया। दूसरे सातों ऋषि विचरण करते हुए मथुरापुरी में आये । (६) उस समय बादलोंसे जलसमूह छोड़नेवाला वर्षाकाल आ गया। सातों ही साधुओंने उस नगरीमें योग ग्रहण किया। (७) उनके प्रभावसे सुरेन्द्र द्वारा प्रयुक्त महामारि नष्ट हो गई। पानीसे सींची गई पृथ्वी भी नये शस्यसे व्याप्त हो गई। (८) तब देशके साथ रोगसे विमुक्त मथुरा भी सफेद ऊखकी बाड़ोंसे व्याप्त हो बिना जोते ही उत्पन्न धान्योंसे सुसमृद्ध हो गई। (९) १. एवं-प्रत्य० । २. लोगे-मु०। ३. वराहो-मु०। ४. व संपत्ता-प्रत्य० । ५. सिरिनिलओ-प्रत्य० । सिरिनिवओ-मु०। ६. पहापुरे-प्रत्य०। ७. रिसया-प्रत्य० । ८. ०क्कसलिलोहो-प्रत्य० । ९. वि सेलस्स हेहम्मि-मु.! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001273
Book TitlePaumchariyam Part 2
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages406
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size11 MB
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