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________________ ८७.१८] ८७. महुराउवसग्गविहाणपव्वं सोऊण मित्तमरणं, चमरो घणसोगकोहपज्जलिओ। वेरपडिउञ्चणट्टे, महुराहिमुहो अह पयट्टो ॥ ३ ॥ अह तत्थ वेणुदाली, सुवण्णराया सुरं पलोएउं । पुच्छइ कहेहि कत्तो, गमणारम्भो तुमे रइओ ॥ ४ ॥ सो भणइ मज्झ मित्तो, जेण हओ रणमुहे मधू नामं । सजणस्स तस्स संपइ, मरणं आणेमि निक्खुत्तं ॥ ५ ॥ तं भणइ वेणुदाली, किं न सुओ संभवो विसल्लाए ? । अहिलससि जेण एवं, कज्जाकजं बियाणन्तो ॥ ६ ॥ अह सा अमोहविजया, सत्ती नारायणस्स देहत्था । फुसिया य विसल्लाए, पणासिया सुकयकम्माए ॥ ७ ॥ ताव य भवन्ति एए, सुर-असुर-पिसाय-भूयमाईया । नाव ण विनिच्छिएणं, लएइ जिणसासणे दिक्खं ॥ ८ ॥ मज्जा-ऽऽमिसरहियस्स उ, हत्थसयब्भन्तरेण दुस्सत्ता । न हवन्ति ताव नाव य, हवइ सरीरंमि नियमगुणो ॥९॥ रुद्दो वि य कालग्गी, चण्डो अइदारुणो सह पियाए । सन्तो पणट्टविज्जो, किं न सुओ ते गओ निहणं ? ॥१०॥ वच्चसु गरुडिन्द ! तुम, एयं चिय उज्झिऊण वावारं । अहयं तस्स कएणं, रिउभयजणणं ववहरामि ॥ ११ ॥ एव भणिओ पयट्टो, चमरो महुरापुरिं समणुपत्तो । पेच्छइ महूसवं सो, कीलन्तं जणवयं सवं ॥ १२ ॥ चिन्तेऊण पवत्तो, अकयग्घो जणवओ इमो पावो । जो निययसामिमरणे, रमइ खलो सोगपरिमुक्को ॥ १३ ॥ अच्छउ ताव रिवू सो, जेण महं घाइओ इह मित्तो । नयरं देसेण समं, सब पि इओ खयं नेमि ॥ १४ ॥ निज्झाइऊण एवं, कोहाणलदीविओ चमरराया । लोगस्स तक्खणं चिय, उवसग्गं दूसहं कुणइ ॥ १५ ॥ नो नत्थ सन्निविट्ठो, सुइओ वा परियणेण सह मणुओ । सो तत्थ मओ सबो, नयरे देसे य रोगेणं ॥ १६ ॥ दट्टण य उवसग्गं, ताहे कुलदेवयाएँ सत्तग्यो । पंडिचोइओ य वच्चइ, साएयं साहणसमग्गो ॥ १७ ॥ रिखुजयलद्धाइसयं, सत्तग्धं पेच्छिऊण पउमाभो । लच्छीहरेण समयं, अहियं अहिणन्दिओ तुट्ठो ॥ १८ ॥ मित्रकी मृत्यु सुनकर शोक और क्रोधसे अत्यन्त प्रज्वलित चमर वैरका बदला लेनेके लिए मथुराकी ओर चला। (३) सुपर्ण कुमार देवोंके इन्द्र वेणुदालिने देवको देखकर पूछा कि तुम किस ओर जानेके तिए प्रवृत्त हुए हो ? (४) उसने कहा कि मधुनामक मेरे मित्रको जिसने युद्ध में मारा है उसकी मृत्यु अब मैं अवश्य लाऊँगा । (५) उसे वेणुदालिने कहा कि विशल्याके जन्मके बारेमें क्या तुमने नहीं सुना, जिसके कार्य-अकार्यको न जानकर तुम ऐसी इच्छा रखते हो ? (६) नारायण लक्ष्मणके शरीरमें रही हुई अमोघविजयाको पुण्यकर्मवाली विशल्याने छूकर विनष्ट किया था। (७) तबतक ये सुर, असुर, पिशाच, भूत आदि होते रहते हैं जबतक निश्चयपूर्वक जिनशासनमें दीक्षा नहीं ली जाती। (८) जबतक शरीरमें नियम-धर्म रहता है तकतक मद्य और मांससे रहित उस व्यक्तिके पास सौ हाथके भीतर-भीतर दुष्ट प्राणी नहीं आते । (ह) कालाग्नि नामका प्रचण्ड और अतिभयंकर रुद्र नष्ट विद्यावाला होकर प्रियाके साथ मर गया यह क्या तुमने नहीं सुना । (१०) हे गरुडेन्द्र ! इस व्यापारका परित्याग कर तुम वापस लौट चलो। मैं उसके लिए शत्रुमें भय पैदा करता हूँ, ऐसा कहकर चमरेन्द्र चला और मथुरा पुरीमें आया। वहाँ पर उसने सब लोगोंको महान् उत्सव मनाते देखा । (११-१२) वह सोचने लगा कि ये लोग अकृतघ्न और पापी हैं, क्योंकि अपने स्वामीका मरण होने पर भी शोकसे रहित होकर आनन्द मनाते हैं।(१३) जिसने यहाँ मेरे मित्रको मारा उस शत्रुकी बात तो जाने दो। अब मैं देशके साथ सारे नगरको नष्ट कर डालता हूँ। (१४) ऐसा सोचकर क्रोधाग्निसे प्रदीप्त चमरराजाने तत्काल ही लोगोंके ऊपर दुस्सह उपसर्ग किया । (१५) उस नगर या देशमें जो मनुष्य जहाँ परिजनके साथ बैठे अथवा सोये थे वे वहीं रोगसे मर गये । (१६) उस उपसर्गको देखकर कुल देवतासे प्रेरित शत्रुघ्न तब सेनाके साथ साकेतपुरी गया। (१७) शत्रुके ऊपर जय प्राप्त करनेसे महिमान्वित शत्रुघ्नको देखकर लक्ष्मणके साथ राम अभिनन्दित और तुष्ट हुये। (१८) पुत्रको देखकर माता हर्षित हुई। तब उसने स्वर्णकलशोंसे जिनवरेन्द्रोंका स्नान एवं पूजन १. भमंति--प्रत्य० । २. य-मु०। ३. सहिओ-मु०। ४. पडिवोहिओ-मु०। ५. आणंदिओ--प्रत्यः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001273
Book TitlePaumchariyam Part 2
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages406
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size11 MB
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