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________________ ८६. महुसुंदरवहपव्वं अह राहवेण भणिओ, सत्तग्यो नं तुम हिययइटुं । इह मेइणीऍ नयर, नं मग्गसि तं पणामेमि ॥ १ ॥ एवं साएयपुरिं, गेण्हसु अहवा वि पोयणं नयरं । तह पोण्डवद्धणं पि य. अन्नं च जहिच्छियं देसं ॥ २ ॥ भणइ तओ सत्तग्यो, महुरं मे देहि देव हियइटुं । पडिभणइ राहवो तं, किं न सुओ तत्थ महराया ! ॥ ३ ॥ सो रावणस्स बच्छय !, जामाऊ सुरवरिन्दसमविभवो । चमरेण जस्स दिन्नं, सूलं पलयकसमतेयं ॥ ४ ॥ मारेऊण सहस्सं, पुणरवि सूलं करं समल्लियइ । नस्स जयत्थं च महं, न एइ रतिंदियं निद्दा ।। ५ ।। नाएण तमो तइआ, पणासिओ जेण निययतेएणं । उज्जोइयं च भेवणं, किरणसहस्सेण रविणं व ॥ ६ ॥ नो खेयरेसु वि णवी, साहिज्जइ तिबबलसमिद्धेसु । सो कह सत्तुग्ध ! तुमे, जिप्पइ दिवत्थकयपाणी ॥ ७ ॥ पउमं भणइ कुमारो, किं वा बहुएहि भासियहिं । महुरं देहि महायस !, तमहं निणिऊण गेण्हामि ॥ ८ ॥ नइ तं महुरारायं, न जिणामि खणन्तरेण संगामे । तो देहरहस्स नाम, पियरस्स फुडं न गेण्हामि ॥ ९ ॥ एवं पभासमाणं, सत्तुग्धं राहवो करे घेत्तु । जंपइ कुमार ! एकं, संपइ मे दक्खिणं देहि ॥ १० ॥ भणइ तओ सत्तग्यो, महुणा सह रणमुहं पमोत्तूणं । अन्नं जं भणसि पहू !, करेमि तं पायवडिओ हं ॥ ११ ॥ निज्झाइऊण पउमो, जंपइ छिद्देण सो हु तो राया । सूलरहिओ पमाई, घेत्तबो पत्थणा एसा ॥ १२ ॥ जं आणवेसि एवं, भणिऊण जिणालयं समल्लीणो । सत्तुग्धकुमारवरो, संथुणइ जिणं सुकयपूयं ॥ १३ ॥ अह सो मज्जियनिमिओ, आपुच्छइ मायरं कयषणामो । दट्टण सुयं देवी, अग्घायइ उत्तिमङ्गम्मि ॥ १४ ॥ ८६. मधुसुन्दर का वध रामने शत्रुघ्नसे कहा कि इस पृथ्वी पर तुम्हें जो प्रिय नगर हो वह माँगो। मैं वह दूँगा । (१) इस साकेतपुरीको ग्रहण करो अथवा पोतननगर, पुण्डवर्धन या अन्य कोई अभीष्ट देश । (२) तब शत्रुघ्नने कहा कि, हे देव ! प्रिय ऐसी मथुरानगरी मुझे दो। इस पर रामने कहा कि क्या तुमने नहीं सुना कि वहाँ मधु राजा है। (३) हे वत्स ! देवोंके इन्द्रके समान वैभववाला वह रावणका जामाता है। जिसे चमरेन्द्रने प्रलयकालीन सूर्यके समान तेजवाला एक शूल दिया है, हजारको -मारकर पुनः वह शूल वापस हाथमें आ जाता है, जिसके जयके लिए मुझे रात-दिन नींद नहीं आती, पैदा होते ही जिसने उस समय अपने तेजसे अन्धकार नष्ट कर दिया था और सूर्य की भाँति हज़ार किरणोंसे भवन उयोतित किया था, अत्यन्त बलसमृद्ध खेचरों द्वारा भी जो बस में नहीं आया-ऐसे दिव्यास्त्र हाथमें धारण किये उसको, हे शत्रुघ्न ! तुम कैसे जीत सकोगे? (४-७) इसपर शत्रुन्नकुमारने रामसे कहा कि, हे महायश ! बहुत कहनेसे क्या फायदा ? आप मुझे मथुरा दें। उसे मैं जीतकर प्राप्त करूँगा। (८) यदि उस मथुरा के राजाको युद्धमें क्षणभर में जोत न लूँ तो पिता दशरथका नाम सर्वथा नहीं लूँगा। (६) इस प्रकार कहते हुए शत्रुघ्नको रामने हाथमें लेकर कहा कि, कुमार ! इस समय मुझे तुम एक दक्षिणा दो। (१०) तब शत्रुघ्नने कहा कि, हे प्रभो! मधुके साथ युद्ध को छोड़कर और जो कुछ आप कहेंगे वह आपके चरणोंमें पड़ा हुआ मैं करूँगा। (११) रामने सोचकर कहा कि शूलरहित और प्रमादी उस राजाको किसी छिद्रसे पकड़ना-यही मेरी प्रार्थना है। (१२) 'जैसी आज्ञा'-ऐसा कहकर शत्रुघ्नकुमार जिनमन्दिरमें गया और अच्छी तरहसे पूजा करके जिनेश्वर भगवान्की स्तुति की। (१३) १. तुमे प्रत्य०। २. भुवणं प्रत्य० । ३. दसर. प्रत्यः । ४. सो तुमं राया प्रत्य० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001273
Book TitlePaumchariyam Part 2
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages406
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size11 MB
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