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________________ ४५८ पउमचरियं [८२.५६सेविज्जन्तो निययं जुवईसु मणोहरासु भवणगओ। न य पेच्छइ उदयन्ते, ससि-मूरे अस्थमन्ते य ॥ ५९ ॥ इह पेच्छहु संसारे, सेणिय !नडचेट्ठियं तु जीवाणं । धणओ य आसि भाया, जाओ च्चिय भूसणस्स पिया ॥ ६० ॥ ताव य निसावसाणे, सोऊणं देवदुन्दुहिनिनायं । देवागमं च दडु, पडिबुद्धो भूसणो सहसा ।। ६१ ।। भद्दो सभावसीलो, धम्मरओ तिवभावसंजत्तो । सिरिधरमुणिस्स पासे, बन्दणहेउं अह पयट्टो ॥ ६२ ।। सो तत्थ पविसरन्तोऽसोगवणे तक्खणंमि उरगेणं । दट्टो च्चिय कालगओ, माहिन्दे सुरवरो जाओ ।। ६३ ॥ चविओ पुक्खरदीवे, माहविदेवीऍ कुच्छिसंभूओ। चन्दाइच्चपूरे सो. पयासजसनन्दणो जाओ ।। ६४ ॥ अमरिन्दरूवसरिसो. नामेण जगजई जइसमग्गो । संसारपरमभीरू, रज्जंमि अणायरं कुणइ ।। ६५॥ तवसीलसमिद्धाणं, साहणाऽहारदाणपुण्णेणं । मरिऊण य देवकुरुं, गओ य ईसाणकप्पं सो ॥ ६६ ॥ सो तत्थ देवसोक्खं, भोत्तु पलिओवमाइ बहुयाई । चविओ जम्बुद्दीवे, अवरविदेहे महासमए ॥ ६७ ॥ रयणपुरे चक्कहरो, अयलो महिलाएँ तस्स घरिणीए । गम्भमि समुप्पन्नो, लोगस्स समूसवो य विभू ।। ६८ ॥ वेरग्गसमावन्न, चक्की नाऊण अत्तणो पुत्तं । परिणावेइ बला तं, तिण्णि कुमारीसहस्साई ॥ ६९ ॥ सो तेहि लालिओ वि य, मन्नइ धीरो विसोवमे भोगे । महइ चिय पबज्ज, नवरं एक्कण भावेणं ।। ७० ॥ केऊरहारकुण्डल-विभूसिओ वरवहूण मज्झत्थो । उवएसं देई विभू, गुणायरं जिणवरुद्दिढें ॥ ७१ ॥ खणभङ्गारेसु को वि हु, भोगेसु रई करेज जाणन्तो । किम्पागफलसमेलु य, नियमा पच्छा अपत्थेसु ॥ ७२ ॥ सा हवइ सलाहणिया, सत्ती एका नरस्स जियलोए । जा महइ तक्खणं चिय, मुत्तिसुहं चञ्चले जीए ॥ ७३ ॥ सुणिऊण पणइणीओ, एयं दइएण भासियं धम्म । उवसन्ताओ नियमे, गेण्हन्ति नहाणुसत्तीए ॥ ७४ ॥ भवनमें रहकर अपनी सुन्दर युवतियोंसे सेवित यह चन्द्र एवं सूर्यके उदय-अस्त भी नहीं देखता था। (५६) हे श्रेणिक! इस संसारमें जीवोंकी नट जैसी चेष्टा तो देखो। जो धनद भाई था वही भूषणका पिता हा। (६०) एक बार रातके अवसानके समय देवदुन्दुभिका निनाद सुनकर और देवोंके आगमनको देखकर भूपण अचानक प्रतिबुद्ध हुआ। (६१) भद्र, सद्भावशील व धर्मरत वह तीव्र भावसे युक्त हो श्रीधर मुनिके वन्दनके निकला । (६२) अशोकवनमें चलते हुए उसको साँपने काट लिया। मरने पर वह माहेन्द्र देवलोकमें उत्तम देव हुआ। (६३) वहाँसे च्युत होने पर वह चन्द्रादित्यनगरमें माधवीदेवीकी कुक्षिसे उत्पन्न हो प्रकाशयशका पुत्र हुआ। (६४) अमरेन्द्रके समान रूपवाला और शुतिसे युक्त वह जगद् ति नामका कुमार संसारसे अत्यन्त भीरु होनेके कारण राज्यमें उदासीनभाव रखता था। (६५) तप एवं शीलसे समृद्ध मुनियोंको आहार-दान देनेसे तज्जन्य पुण्यके कारण मरकर वह देवकुरुमें उत्पन्न हुया। वहाँसे वह ईशानकल्पमें गया । (६६) अनेक पल्योपम तक वहाँ देवसुख भोगकर च्युत होने पर जम्बूद्वीपके पश्चिम विदेहक्षेत्र में आये हुए महासमयके रत्नपुरमें चक्रवर्ती अचलकी पत्नी हरिणीके गर्भसे वह उत्पन्न हुआ। लोकमें महान् उत्सव मनाया गया। (६७-६८) अपने पुत्रको वैराग्य-युक्त जानकर चक्रवर्तीने जबरदस्तीसे उसका तीन हजार युवतियोंके साथ विवाह कराया। (६९) उनके द्वारा लालित होने पर भी वह धीर भोगोंको विषतुल्य मानता था। एकाग्र भावसे वह केवल प्रव्रज्याकी ही इच्छा रखता था!(७०) केयूर, हार एवं कुण्डलोंसे विभूषित तथा उत्तम वधूओंके बीच रहा हुआ वह विभू, जिनवर द्वारा उपदिष्ट और गुणोंसे समृद्ध ऐसा उपदेश देता था कि क्षणभंगुर तथा किम्पाक फलके समान बादमें अवश्य ही अपथ्य ऐसे भोगोंमें जानबूझकर कौन रति करेगा ? (७१-७२) जीवलोकमें मनुष्यकी वही एकमात्र शक्ति श्लाघनीय है जो चंचल जीवनमें तत्काल मुक्ति-सुख चाहती है। (७३) पति द्वारा कहे गये ऐसे धर्मको सुनकर स्त्रियाँ उपशान्त १. गमणं दट्टुमु०। २. पासं प्रत्य। ३. तत्थ अवयरंतो मु०। ४. माहवदे० प्रत्य० । ५. वीरो प्रत्यः । ६. •इ गुरू, गुणा० मु० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001273
Book TitlePaumchariyam Part 2
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages406
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size11 MB
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