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________________ ४५६ पउमचरियं ॥ २७ ॥ २८ ॥ २९ ॥ ३० ॥ ३१ ॥ ३२ ॥ ३३ ॥ ३४ ॥ चन्दोदओ कयाई, नागपुरे हरिमइस्स भज्जाए । पल्हायणाऍ गब्भे, नाओ य कुलंकरो राया सूरोदओ वि एत्तो, तंमि पुरे विस्सभू इविप्पेणं । जाओ सुइरयनामो, गब्र्भमि य अग्गिकुण्डाए ॥ राया कुलंकरो वि य, गच्छन्तो तावसाण सेवाए । अह पेच्छइ मुणिवं सभं धीरं अभिणन्दणं नामं ॥ विहिनाणी, नत्थ तुमं नासि तत्थ कट्टगओ। नरवइ ! पियामहो ते, चिट्टइ सप्पो समुत्पन्नो ॥ अह फालियम कट्टे - रक्खिस्सइ तावसो तुमं दट्टु । गन्तूण पेच्छइ निवो, तं चैव तहाविहं सबं ॥ तच्चत्थदरिसणेणं, मुणिवरवयणेण तत्थ पडिबुद्धो । राया इच्छइ काउं, पवज्जं जायसंवेगो ॥ उपबन्तसुईए, तं विप्पो सुइरओ विमोहेइ । जंपइ कुलागओ च्चिय, नरवर ! तुह पेइओ धम्मो ॥ रज्जं भोत्तूण चिरं, निययपए ठाविडं सुयं जेट्टं । पच्छा करेज्जसु हियं, सामिय ! वयणं ममं कुणसु ॥ एयं चिय वित्तन्तं, सिरिदामा तस्स महिलिया सोउं । चिन्तेइ परपसत्ता, अहयं मुणिया नरिन्देणं ॥ ते इमो पवज्जं, राया गिण्हेज्ज वा न गिण्हेज्जा । को जाणइ परहिययं, तम्हा मारेमिह विसेणं ॥ पावा पुरोहिएणं, सह संजुत्ता कुलंकरं ताहे । मारेइ तक्खणं चिय, पसुधारणं निययगेहे ॥ सो कालगओ ताहे, ससओ होऊण पुण तओ मोरो । नागो य समुप्पन्नो, कुररो तह दद्दुरो चेव ॥ अह सुइरओ विपु, मरिऊणं गयवरो समुप्पन्नो । अक्कमइ ददुरं तं, सो हत्थी निययपाएणं ॥ कालगओ उप्पन्नो, मच्छो कालेण सरवरे सुक्के । काएसु खज्जमाणो, मरिऊणं कुक्कुडो जाओ ॥ मज्जारो पुण हत्थी, तिणि भवा कुक्कुडो समुत्पन्नो । माहणमज्जारेणं, खद्धो तिष्णेव जम्माई ॥ बम्भणमज्जारो सो, मरिउं मच्छो तओ समुप्पन्नो । इयरो वि सुंसुमारो, जाओ तत्थेव सलिलंमि ॥ [ ८२.२७ Jain Education International ३५ ॥ ३६ ॥ ३७ ॥ चन्द्रोदय किसी समय नागपुर में हरिमतिकी भार्या प्रहलादना के गर्भ से कुलंकर राजा हुआ । (२७) उधर सूर्योदय भी उसी नगर में विश्वभूति ब्राह्मणकी अग्निकुण्डा नामकी पत्नीके गर्भ से श्रुतिरत नामसे पैदा हुआ। (२= ) तापसोंकी सेवाके लिए जाते हुए कुलंकर राजाने अभिनन्दन नामके एक धीर मुनिवर को देखा । (२२) अवधि ज्ञानीने कहा कि, हे राजन् जहाँ तुम जा रहे हो वहाँ काष्टमें सर्परूपसे उत्पन्न तुम्हारा पितामह रहता है । (३०) लकड़ी चीरने पर तुमको देखकर वह वच जायगा । जा करके राजाने वह सब वैसा ही देखा । (३२) मुनिवर के वचनके अनुसार सत्य वस्तुके दर्शनसे प्रतिबोधित राजाको वैराग्य उत्पन्न होने पर प्रवज्या लेने की इच्छा हुई । (३२) ऋक् आदि चार विभागवाली श्रुतिसे ब्राह्मण श्रुतिरतने उसे विमोहित किया। कहा कि, हे राजन् कुल परम्परासे आया हुआ तुम्हारा पैतृक धर्म है। (३३) चिरकाल तक राज्यका उपभोग करके और अपने पद पर ज्येष्ठ पुत्रको स्थापित करके बादमें तुम आत्मकल्याण करना । हे स्वामी ! मेरे वचनके अनुसार कार्य करो। (३४) उसकी पत्नी श्रीदामाने यह वृत्तांत सुनकर सोचा कि मैं परपुरुषमें प्रसक्त हूँ ऐसा राजाने जान लिया है। (३५) यह राजा दीक्षा ले या न ले। दूसरेका हृदय कौन जानता है। अतः विष द्वारा इसे मार डालूँ । (३६) तव पुरोहित के साथ मिलकर फौरन ही उस पापी स्त्रीने अपने घर में कुलंकरको निर्दयतासे मार डाला । (३७) For Private & Personal Use Only ३८ ॥ ३९ ॥ ४० ॥ ४१ ॥ ४२ ॥ मरने पर वह खरगोश होकर फिर मोर, नाग, कुरल पक्षी और मेंढ़कके रूपमें उत्पन्न हुआ । (३८) उधर श्रुतिरत भी मरकर पहले हाथीके रूपमें पैदा हुआ। उस हाथीने अपने पैर से उस मेंढ़कको कुचल डाला । (३९) मरने पर वह यथासमय सूखे सरोवरमें मत्स्य के रूपमें पैदा हुआ । कौओं द्वारा खाया गया वह मरकर कुकड़ा हुआ । (४०) बिल्ली, फिर हाथी, फिर तीन भव तक कुकड़ेके रूपमें वह उत्पन्न हुआ। बिल्ली, रूपमें उत्पन्न ब्राह्मणने तीनों ही जन्ममें उसे खाया । ( ४१ ) इसके बाद बिल्ली रूपसे उत्पन्न ब्राह्मण मरकर मत्स्य हुआ। दूसरा भी उसी जलाशय में सुंसुमार नामक जलचर प्राणी हुआ । (४२) वे सुंसुमार और मत्स्य धीवरोंके द्वारा जालमें पकड़े गये । खींचकर वध किये गये वे १. जाओ च्चिय कुलगरो - मु० । २. • वसहं वीरो अभिः प्रत्य० । ३. कुरुरो - प्रत्य० । www.jainelibrary.org
SR No.001273
Book TitlePaumchariyam Part 2
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages406
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size11 MB
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