SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 97
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पउमचरियं [५.९० मारेऊण य पियरं, काऊण य तस्स पेयकरणिज्जं । पुहईयलं भमन्तो, सो वि हु मरणं समणुपत्तो ॥ ९० ॥ जो भावणो त्ति नाम, पुण्णघणो सो इहं समुप्पन्नो। जो विहु तस्साऽऽसि सुओ, सुलोयणो सो वि नायबो ॥ ९१ ॥ एवं पुबभवगयं, वेरं विज्जाहराण सोऊणं । मा होह कलसहियया, वेरं दूरेण वज्जेह ॥ ९२ ॥ अह भणइ चक्कवट्टी, पुण्णघण-सुलोयणाण जं वत्तं । चरियं सुयं महायस ! कहेह एत्तो सुयाणं पि ॥ ९३ ।। सहस्रनयनमेघवाहनयोः पूर्वभवःजम्बुद्दीवे भरहे, पउमपुरे रम्भको ति नामेणं । तस्साऽऽसि परमसीसा, ससी य आवलियनामो य ॥ ९४ ॥ आवलिणा गन्तूणं, कीया गोधेणु गोउले पवरा । मोल जाव न दिजइ, ताव ससी तत्थ संपत्तो ॥ ९५ ॥ सिग्घं चिय तेण कओ, दोण्ह वि भेओ सुसत्थकुसलेणं । गोवालएण समय, काऊणं कूडमन्तणयं ॥ ९६ ॥ गोधेणु तेण गहिया, नायं इयरेण जुज्झमावन्नं । पहओ आवलिनामो, मओ य मेच्छो समुप्पन्नो ॥ ९७ ॥ ससि मुल्लथं च तया, विक्कऊणं जहाणुसारेणं । अविभिन्नमुहच्छाओ, लोलाएँ समागओ गेहं ॥ ९८॥ अह अन्नया कयाई, गच्छन्तो तामलित्तिनयर सो । ससिओ मेच्छेण हओ. मओ य वसहो समुप्पन्नो ॥ ९९ ॥ तत्तो वि पावगुरुणा, वसहो मेच्छेण मारिउं खद्धो । उप्पन्नो मज्जारो, मेच्छो वि हु मूसओ जाओ ॥ १०० ॥ अन्नोन्नमारणं ते, काऊणं नरय-तिरियजोणीसु । संभमदेवस्स तओ, दोणि वि दासा समुप्पन्ना ॥ १०१ ॥ दासा सहोयरा ते, जाया नामेण कूड-कावडिया । जिणहरनिओगकरणे, ते य निउत्ता उ इन्भेणं ॥ १०२ ॥ कालं काऊण तओ, दोण्णि वि भूयाहिवा समुप्पन्ना । पढमो रूवाणन्दो, सुरूवनामो भवे बीओ ॥ १०३ ॥ में खरीदी परन्तु उस उसके शशी एवं पावला - 'जम्बूद्वीपके भरतत हुआ था वैसा अपने पिता की हत्या करके तथा उसका प्रेतकर्म (मरणोत्तर विधि) सम्पादन करके वह पृथ्वीपर भटकने लगा। कालान्तरमें वह भी मर गया। (९०) जो भावन था वह पूर्णघनके नामसे यहाँ पैदा हुआ और उसका जो पुत्र था उसे सुलोचन जानो। (९१) इस प्रकार पूर्व भवसे सम्बन्ध रखनेवाले विद्याधरोंके वैरके बारेमें सुनकर तुम कलुषित मनवाले न बनो और वैरका दूरसे ही त्याग करो । (९२) __ इसपर चक्रवर्तीने पूछा-'हे महायश! पूर्णधन एवं सुलोचनका चरित जैसा घटित हुआ था वैसा सुना। अब आप उनके पुत्रोंके बारेमें भी कहें ।' (९३) इस पर भगवान्ने कहा-'जम्बूद्वीपके भरतक्षेत्रमें आए हुए पद्मपुर नामके नगरमें रम्भक नामका एक आचाय रहता था। उसके शशी एवं प्रावलिक नामके दो परम शिष्य थे। (९४) आवलिकने गोकलमें जाकर उत्तम गायें खरोदी परन्तु उसका मूल्य देते-देते तो शशी भी वहाँ आ पहुँचा । (६५) शस्त्रोंमें कुशल रम्भकने खालके साथ छलकपटसे युक्त संकेत करके उन दोनोंके बीच शीघ्र ही भेद उत्पन्न करा दिया। (६६) शशीने गाएँ ले लीं। यह बात दसरेको ज्ञात हुई। इसपर दोनोंमें लड़ाई हुई। आवलिक घायल हुआ और वह मरकर म्लेच्छ रूपसे उत्पन्न हुआ। (९७) इसके अनन्तर मूल्यके लिये गायोंको यथोचित दाममें बेचकर अखण्डित मुखकान्तिवाला शशी आरामसे घरपर लौट आया । (६८) एक बार शशी ताम्रलिप्ति नगरको ओर जा रहा था। तब उस म्लेच्छने उसे मार डाला। मरकर वह बैलके रूपमें उत्पन्न हुआ। (९९) पापसे भारी म्लेच्छ उस बैलको मारकर खा गया। वह बैल बिलावके रूपसे उत्पन्न हुआ और म्लेच्छ भी चूहा बना । (१००) एक दूसरेको मारकर नरक एवं तियेच योनियों में घूमते हुए वे दोनों सम्भ्रमदेवके दासके रूपमें उत्पन्न हुए। (१०१) कूट एवं कार्पटिक नामसे वे दोनों दास सहोदर भाईके रूपमें पैदा हुए थे। संभ्रमदेव सेठने उन दोनोंको जिनमंदिरका कार्य करनेके लिए नियुक्त किया । (१०२) वहाँसे मरकर वे दोनों भूतगणके स्वामीके रूपमें पैदा हुए। उनमेंसे प्रथमका नाम रूपानन्द तथा दूसरेका नाम सुरूप था। (१०३) शशी च्युत होकर राजबलिमें कुलन्धर नामसे उत्पन्न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy