________________
५.२९]
५. रक्खसर्वसाहियारो जाओ य रयणचित्तो, चन्दरहो वज्जसङ्घनामो य । सेणो य वज्जदत्तो, राया वज्जद्धओ जाओ ॥ १५ ॥ वज्जाउहो य वज्जो. सुवज्ज बजंधरो महासत्तो । वजाभ वज्जबाहू, वज्जको नाम विक्खाओ ॥ १६ ॥ अह वज्जसुन्दरो वि य, वज्जासो वज्जपाणिराया य । उप्पन्नो य नरवई, वजसुजण्हू य वज्जो य ॥ १७ ॥ विज्जमुहो सुवयणो, राया तह विजुदत्तनामो य । विज्जू य विजुतेओ, तडिवेओ बिजुदाढो य ॥ १८ ॥ एए खेयरवसहा, विज्जा-बल-सिद्धिसारसंपुण्णा । दाऊण रायलच्छी, सुएसु कालेण वोलीणा ॥ १९ ॥ अह अन्नया कयाई, दोसु वि सेढीसु सामिओ राया । नामेण विज्जुदाढो, अवरविदेहं गओ सहसा ॥ २० ॥ दिट्ठो य संजयन्तो, तेण भमन्तेण संजमारूढो । घेत्तूण पावगुरुणा, इहाणिओ पञ्चसंगमयं ॥२१॥ ठविऊण गिरिवरिन्दे, पत्थरपहरेहि खेयरसमग्गो । आहणइ निरणुकम्पो, तह वि य जोगं न छड्डइ ॥ २२ ॥ उवसग्गम्मि बहुविहे, तस्स सहन्तस्स जोगजुत्तस्स । समचित्तस्स भगवओ, उप्पन्नं केवलं नाणं ॥ २३ ॥ एयम्मि देसकाले, धरणिन्दो आगओ मुणिसयास । नमिऊण तस्स चलणे, विज्जाकोसं तओ हरइ ॥ २४ ॥ जिणभवण-मुणिवराणं, उवरिं गच्छेज जो बलुम्मत्तो । सो विजापरिभट्टो, होही विज्जाहरो नियमा ॥ २५ ॥ काउण समयमेयं, विज्जाओ समप्पिऊण धरणिन्दो। पुच्छइ मुणिवरवसह, घोरुवसग्गस्स संबन्धं ॥ २६ ॥ अह भणई संजयन्तो, चउगइवित्थिण्णदीहसंसारे । गामे उ सयडनामे, कह वि भमन्तो समुप्पन्नो ॥२७॥ वणियकुलम्मि हियकरो, नामेण अहं सुसाहुपडिसेवी । अज्जव-मद्दवजुत्तो, जाओ परिणामजोगेणं ॥ २८ ॥ कालं काऊण तओ, कुसुमावइसामिओ समुप्पन्नो । सिरिवद्धणो ति नामं, जाओ हं नरवई तइया ॥ २९॥
हुमा । (४) उसके पश्चात् रत्नचित्र, चन्द्ररथ, वज्रसंघ, वनसेन, वज्रदत्त तथा वनध्वज राजा हुए । (१५) उससे वसायुध, बज, सुवन, महासत्त्वशाली वनन्धर, वज्राभ, वज्रबाहु तथा वनांक नामके विख्यात राजा हु।(१६) उसके अनन्तर वासुन्दर, वत्रास्य, वळपागि राजा, वासुजहूनु तथा वन राजा हुए। (१७) इनके बाद विद्युन्मुख, सुवदन, विद्युदत्त, विद्युद्वान, तडिद्वेग तथा विद्युदंष्ट्र नामके राजा हुए । (१८) विद्या, बल, सिद्धि एवं सत्त्वसे पूर्ण इन खेचरों (विद्याधरों) में श्रेष्ठ राजाओंने राज्यलक्ष्मी अपने-अपने पुत्रोंको दी और समय आने पर स्वर्गवासी हुए । (१९)
एक दिन वैतान्यकी दोनों श्रेणियोंका विद्यद्दष्ट नामका राजा अचानक अपरविदेह नामक क्षेत्रमें गया । (२०) घूमते हुए उसने संयममें आरूढ़ संजयन्त नामके एक मुनिको देखा। पापसे भारी वह उन्हें पकड़कर पंचगिरि नामक पर्वत पर लाया । (२१) उस पर्वत पर उन्हें रखकर दूसरे खेचरोंके साथ वह निर्दय राजा पत्थरोंसे प्रहार करने लगा, परन्तु वह मुनि ध्यानसे विचलित न हुऐ। (२२) अनेक प्रकारके उपसर्ग सहन करते हुए उन योगयुक्त तथा समचित्त भगवान्को केवल ज्ञान उत्पन्न हुआ। (२३) उस समय वहाँ मुनिके पास धरणेन्द्र नामका देव आया और उन मुनिके चरणोंमें वन्दन करने के पश्चात् उसने उस विद्याधरकी सभी विद्याएँ हर ली। (२४) जो विद्याधर अपने बलसे उन्मत्त होकर जिन मन्दिर व मुनिवौंका अतिक्रमण करता है वह अवश्य ही विद्यासे परिभ्रष्ट होता है। (२५) इस प्रकारका उपदेश देकर तथा विद्याएँ उसे वापस लौटाकर धरणेन्द्रने घोर उपसर्गके बारेमें मुनियों में श्रेष्ठ ऐसे उन मुनि से पूछा । (२६) इस पर संजयन्त मुनिने कहा
'चतुर्गति रूपी विस्तीर्ण व दीर्घ संसारमें भटकता हुआ मैं किसी तरह शकट नामके एक गाँवके वणिक कुलमें उत्पन्न हुआ। मेरा नाम हितकर था। मैं साधुओं की परिचर्या करता था और शुभ अध्यवसायके योगसे आर्जव एवं मार्दव गुणोंसे युक्त था । (२७-२८) वहांसे मरकर मैं कुसुमावती नगरीके स्वामी श्रीवर्द्धन नामक राजाके रूपमें उत्पन्न हुमा। (२९) उसी गाँवमें एक ब्राह्मण रहता था। वह कुत्सित तप करके मरने पर देवलोकमें अल्प ऋद्धिवाला देव
१. सुबह-प्रत्य।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org