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पउमचरियं
[३.१०२अन्ने वि सुरवरिन्दा, सब्भूयगुणेहि निणवर थोउं । काऊण य तिक्खुत्तं, जहागयं पडिगया सबे ॥ १०२ ॥ हरिणगवेसी वि तओ, आणेत्तु जिणेसरं निययगेहं । ठविऊण माउअके, मुरालयं सो वि संपत्तो ॥ १०३ ॥ दट्टण य मरुदेवी, दिवालंकारभूसियं पुत्तं । पुलझ्य-रोमञ्चइया, न माइ नियएसु अङ्गेसु ॥ १०४ ॥ नाभी वि सुयं दट्टु, सुरकुङ्कमबहलदिन्नचच्चिक्कं । वररयणभूसियङ्ग, तइलोक्काईसयं वहइ ॥ १०५ ॥ उयरम्मि नं पविट्ठो, उसभो जणणीऍ कुन्दससिवण्णो । उसभो त्ति तेण नामं, कयं से नाभीण तुट्टेणं ॥ १०६ ॥ अणुदियह परिवड्डइ, अङ्गुट्टयअमयलेहणवसेणं । सुरदारयपरिकिण्णो, कीलणयसएमु कीलन्तो ॥ १०७ ॥ पत्तो सरीरविद्धिं, कालेणऽप्पेण परमलायण्णो । लक्खण-गुणाण निलओ, सिरिवच्छुक्किण्णवच्छयलो ॥ १०८ ॥ धणुपञ्चसउच्चत्तं, देहं नारायवजसंघयणं । लक्खणसहस्ससहियं, रवि छ तेएण पज्जलियं ॥ १०९ ॥ आहार-पाण-वाहण-सयणा-ऽऽसण-भूसणाइयं विविहं । देवेहि तस्स सबं, उवणिज्जइ तक्खणे परमं ॥ ११०॥ कालसभावेण तओ, नढेसु य विविहकप्परुक्खेसु । तइया इक्खुरसो च्चिय, आहारो आसि मणुयाणं ॥ १११ ॥ विन्नाण-सिप्परहिया, धम्मा-ऽधम्मेण वज्जिया पुहई । कल्लाण-पयरणाणं, न य पासण्डाण उप्पत्ती ।। ११२ ॥ तइया धणएण कया. नयरी वरकणगतुङ्गपागारा । नवजोयणविस्थिण्णा, बारस दीहा रयणपुण्णा ॥ ११३ ॥ उसभनिणेण भगवया,गामा-ऽऽ-गर-नगर-पट्टण-निवेसा । कल्लाण-पयरणाणि य, सयं च सिप्पाण उवइट्ट॥ ११४ ।। रक्खण करणनिउत्ता, जे तेण नरा महन्तदढसत्ता । ते खत्तिया पसिद्धिं, गया य पुहइम्मि विक्खाया ॥ ११५॥
अन्य सब इन्द्र भी वास्तविक गुणों द्वारा जिनवरका संकीर्तन करके तथा तीन प्रदक्षिणा देकर जहाँसे बाए थे वहाँ चले गए। (१०२ ) तत्पश्चात् हरिनैगमैषी देव जिनेश्वरको उनके घर पर वापस लाया और माताकी गोदमें रखकर देवलोकको चला गया । (१०३)
अपने पुत्रको दिव्य अलंकारोंसे विभूषित देखकर मरुदेवी अत्यन्त हर्षित एवं रोमांचित हो गई। उसके अंगोंमें हर्ष समाता नहीं था । (१०४) नाभि राजा भी दिव्य केसरके लेपसे चर्चित तथा उत्तम रत्नोंसे विभूषित अंगवाले अपने पत्रको देखकर अपने आपको तीनों लोकोंकी महिमासे युक्त समझने लगा। (१०५) चूंकि स्वप्नमें कुन्द पुष्प तथा चन्द्रमाके समान श्वेतवर्णका वृषभ माताकी कुक्षिमें प्रविष्ट हुआ था, इसलिये नाभिने प्रसन्न होकर उसका नाम वृषभ रखा । (१०६) अंगूठे पर लगे हुए अमृतके चूसनेसे तथा देवपुत्रोंके साथ सैकड़ों खेल खेलते हुए वे प्रतिदिन बढ़ने लगे। (१०७) अत्यन्त सुन्दर, सामुद्रिक लक्षण तथा गुणोंके निधानरूप एवं वक्षस्थल पर श्रीवत्सका चिह्न उत्कीर्ण है ऐसे उन वृषभने स्वल्प समयमें ही शरीरकी वृद्धि प्राप्ति की। (१०८) उनका शरीर पाँच सौ धनुष ऊँचा था, उनके शरीरका संहनन वननाराच था, वे हजारों शुभ लांछनासे युक्त थे और तेजसे रविकी भाँति देदीप्यमान थे। (१०९) विविध आहार, पान, वाहन, शयन, आसन एवं भूषणादि सब कुछ देव तत्क्षण उनके समक्ष उपस्थित करते थे। (११०) तत्कालीन स्थिति तथा श्रीऋषभदेव द्वारा नवनिर्माण
समयके प्रभावसे विविध प्रकारके कल्पवृक्षोंके नष्ट होने पर उस समय लोगोंका आहार ईखका रस ही था। (१११) वह पृथ्वी विज्ञान एवं शिल्पसे शून्य थी, धर्म-अधर्मके विवेकसे भी रहित थी। उस समय शुभजनक दान तथा पाखण्ड धोंकी भी उत्पत्ति नहीं हुई थी। (१५२) उस समय कुबेरने रत्नोंसे पूर्ण एक नगरी बनाई जिसके प्राकार ऊँचे थे और उत्तम सोनेके बने हुए थे। वह नौ योजन चौड़ी और बारह योजन लम्बी थी। (११३) स्वयं भगवान् ऋषभने गाँव, कस्बे, नगर. पट्टन आदि बस्तियोंकी तथा कल्याणप्रद दानकी तथा शिल्पोंकी शिक्षा दी । (११४) अत्यन्त दृढ़ और शक्तिशाली जिन
१. जहागया-मु०। २. कयं तु नाभीण-मु.। ३ नाभिना। ४ शक्रके सैन्यका अधिपति देव । ऐतिहासिक दृष्टिसे देखा जाय तो यह राजगृहमें सर्वप्रथम बालभक्षक देवके रूपमें प्रसिद्ध था। कालान्तरमें बालभक्षक मिट कर बालरक्षक देवके रूपमें इसकी प्रसिद्धि हुई है। इस देवके अनेक स्तूप व मन्दिर कंकाली टीले (मथुरा) में से मिले हैं।
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