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३. विजाहरलोगवण्णणं नच्चन्ति केइ तुटा. अवरे गायन्ति महरसद्देणं । अप्फोडण-चलण-वियम्भणाई केइत्थ कुबन्ति ॥ ८९ ॥ अवरेन्थ आयवत्तं, धरेन्ति उबरिं समोत्तिओऊकुलं । घणगुरु-गभीरसई, वायन्ति य दुन्दुही अन्ने ॥ ९० ॥ नच्चन्ति य सविलासं, अमरबहूओ सभावहावत्थं । सललियपयमिक्खेवं, कडक्खदिट्टीवियारिल्लं ॥ ९१ ॥ उवरिं च कुसुमवासं, मुञ्चन्ति मुरा विचित्तगन्धहूं । जह निम्मलं पि गयणं, खणेण स्यधूसरं जायं ॥ ९२ ॥ तो सुरगणेहि तुरियं, कलसा खीरोयसायरजलाओ। भरिऊण य आणीया, अभिसेयत्थं जिणिन्दस्स ॥ ९३ ॥ घेत्तण रयणकलसं, इन्दो अहिसिश्चिऊणमाढत्तो। जयसद्दमुहलमुहरब-थुइमङ्गलकलयलारावं ॥ ९४ ॥ जम-वरुण-सोममाई, अन्ने वि महिड्डिया सुरवरिन्दा । पयया पसन्नचित्ता, जिणाभिसेगं पकुम्वन्ति ॥ ९५ ॥ इन्दाणीपमुहाओ, देवीओ सुरहिगन्धचुण्गेहिं । उचट्टन्ति सहरिसं, पल्लवसरिसग्गहत्थेहिं ॥ ९६ ।। काऊण य अभिसेयं, विहिणा आभरणभूसणनिओगं । विरएइ सुरवरिन्दो, जिणस्स अङ्गेसु परितुट्टो ॥ ९७ ॥ चूडामणि से उरिं, संताणयसेहरं सिरे रइयं । कण्णेसु कुण्डलाई, भुयासु माणिक्ककडयाइं ॥ ९८॥ कडिसुत्तयं पिणद्ध, कडियडपट्टम्मि जिणवरिन्दस्स । दिव्वंसुयस्स उवरिं, उन्भासइ रयणपज्जलियं ॥ ९९ ॥ सबायरेण एयं, काऊणाऽऽभरणभूसियसरीरं । हरिसियमणो सुरिन्दो, थोऊण जिणं समाढत्तो ॥ १००॥ जय मोहतमदिवायर ! जय सयलमियङ्क ! भवियकुमुयाणं । जय भवसायरसोसण ! सिरिवच्छविहूसिय ! जयाहि ॥१०१॥
बानोके ताल देने लगे, इधर उधर घूमने लगे या अनेक प्रकारके खेलकूद करने लगे । (८८-८९) दूसरोंने मोतियोंकी लड़ियोंसे व्याप्त छत्र धारण किया तो दूसरे देव बादलों सदृश ऊँची और गम्भीर ध्वनि करनेवाली दुन्दुभियों बजाने लगे। (९०) उस समय देवोंकी स्त्रियाँ हाव-भावके साथ और विलासपूर्वक नृत्य करने लगीं। उनका पादनिक्षेप अत्यन्त ललित था और कटाक्षपूर्ण दृष्टिपातोंसे उनके भाव अवगत हो रहे थे। (९१ ) ऊपरसे देव अनेक प्रकारकी गन्धोंसे समृद्ध पुष्पोंकी वृष्टि इस प्रकार कर रहे थे कि निर्मल आकाश भी क्षण भरमें पुष्प रेणुसे धूसरित हो गया। (९२) - इसके बाद फौरन ही देवगण क्षीरसागरसे कलशोंमें जल भर कर जिनेन्द्र के अभिषेकके लिए लाए । (९३) रत्नकलश लेकर इन्द्रने अभिषेक करना आरम्भ किया। उस समय मुँहसे निकलनेवाले 'जय' शब्दसे शब्दायमान स्तुति एवं मंगलकी कलकल ध्वनि सर्वत्र व्याप्त थी। (९४) दूसरे भी बड़ी बड़ी ऋद्धिवाले यम, वरुण और सोम आदि देव मनमें प्रसन्न होकर आगे बढ़े और जिनेश्वरका अभिषेक करने लगे। (९५) इन्द्राणी आदि देवियाँ भी हर्षित होकर पल्लवके सदृश अपने कोमल हाथों द्वारा सुगन्धित चूर्णासे भगवानको उबटन मलने लगीं। (९६) विधिपूर्वक अभिषेक करनेके पश्चात् इन्द्र अत्यन्त प्रसन्न होकर जिनेश्वरके अंग पर आभूषण और वस्त्र पहनाने लगा। (९७) उसने सिर पर मुकुट तथा उसके ऊपर सन्तानक पुष्पोंकी माला पहनाई। दोनों कानोंमें दो कुण्डल तथा भुजाओं पर माणिक्यके कड़े पहनाए । (९८) जिनवरके कटिपटके ऊपर जो करधौनी पहनाई गई वह दिव्य वस्त्रके ऊपर अपने रत्नोंकी वजहसे खूब चमक रही थी। (९९)
इस प्रकार सम्पूर्ण आदरके साथ आभरणोंसे जिनवरका शरीर सजा कर मनमें अत्यन्त आनन्दित इन्द्र उनकी स्तुति करने लगा (१००)
'मोहरूपी अन्धकारके लिये सूर्यके समान, आपकी जय हो! भव्यरूपी कुमुदोंको विकसित करनेवाले हे पूर्णचन्द्र, आपकी जय हो! संसाररूपी सागरका शोषण करनेवाले आपकी जय हो ! श्रीवत्स लांछनसे विभूषित, आपकी जय हो। (१०१)
१. समौक्तिकावचूलम् ।
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