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३. विज्जाहरलोगवण्णणं सुमिणावसाणसमए, जयसदुग्घुट्टतूरसदेणं । छज्जइ य नवविबुद्धा, सूरागमणे कमलिणि छ ॥ ६३ ॥ कयकोउयपरियम्मा, नाभिसयासं गया हरिसियच्छी । रयणासणोवविद्या, कहइ य पइणो वरे सुमिणे ॥ ६४ ॥ नोऊण य सुविणत्थं, नाभी तो भणइ सुन्दरी ! तुझं । गन्मम्मि य संभूओ, होही तित्थंकरो पुत्तो ॥ ६५ ॥ एवं सुणित्तु वयणं, मरुदेवी हरिसपूरियसरीरा । पप्फुल्लकमलनेत्ता, परिओसुन्भिन्नरोमचा ॥ ६६ ॥ छम्मासेण जिणवरो, होही गन्भम्मि चवणकालाओ। पाडेइ रयणवुट्टी. धणओ "दिवसाणि पन्नरस ॥ ६७ ॥ गन्भट्ठियस्स जस्स उ, हिरण्णवुट्ठी सकञ्चणा पडिया। तेणं हिरण्णगब्भो, नयम्मि उवगिज्जए उसभो ॥ ६८ ॥ नाणेसु तीसु सहिओ, गब्भे वसिऊण जम्मसमयम्मि। अह निग्गओ महप्पा, खोभेन्तो तिहुयणं सयलं ।। ६९॥ दं?ण पुत्तजम्म, नाभी पडुपडह-तूरसद्दालं । मङ्गलविभूइसहिय, आणन्दं कुणइ परितुट्टो ॥ ७० ॥
देवकृतः ऋषभजिनजन्मोत्सवःपुण्णाणिलाहयाई, दट्टु चलियासणाइँ देविन्दा। अवहिविसएण ताहे, पेच्छन्ति जिणं समुप्पन्नं ॥ ७१ ॥ सङ्ग्रेण भवणवासी, वन्तरदेवा वि पडहसद्देणं । उट्टन्ति ससंभन्ता, जोइसिया सीहनाएणं ॥ ७२ ।। कप्पाहिवा वि चलिया, घण्टासद्देण बोहिया सन्ता । सबिड्डिसमुदएणं, एन्ति इहं माणुसं लोगं ॥ ७३ ॥ गय-तुरय-वसह-केसरि-विमाणवरवाहणेसु आरूढा । देवा चउप्पयारा, तो नाभिधरं समणुपत्ता ।। ७४ ॥ वेरुलिय-वज-मरगय-कक्केयण-सूरकन्तपज्जलियं । पाडेन्ति रयणवुट्टि, नाभिघरे हरिसिया देवा ।। ७५ ॥
हुई कमलिनीकी भाँति 'जय' शब्दके साथ बजाए जानेवाले वाद्योंके संगीतसे वह जग उठी। (६३) सौभाग्यके लिये किए जानेवाले स्नपन, धूप आदि कर्म करके प्रसन्न नेत्रोंवाली वह नाभि कुलकरके समीप गई और रत्नासनपर बैठकर उन उत्तम स्वप्नोंके बारेमें पतिसे कहने लगी । (६४) तब स्वप्नोंके रहस्यको जानकर नाभिने कहा-'सुन्दरि! तेरे गर्भमें आया हुआ पुत्र तीर्थकर होगा । (६५) ऐसा वचन सुनकर मरुदेवीका शरीर आनन्दसे भर गया, उसके नेत्र खिले हुए कमलके समान विकसित हो गए और अत्यन्त हर्षके कारण उसे रोमाञ्च हो आया। (६६) स्वर्गसे च्युत होकर जिनवरके गर्भमें आनेके छः मास पहले कुबेर पन्दरह दिन तक रत्नवृष्टि करता रहा । (६७) ऋषभ अभी गर्भावस्थामें ही थे कि हिरण्यकी वृष्टि काश्चनके साथ होने लगी, अतः लोकमें 'हिरण्यगर्भ' के नामसे उनकी प्रशंसा होने लगी। (६८) गर्भ में ही वे तीन ज्ञानसे सहित थे। जब उन महात्माका यथासमय जन्म हुआ तब समग्र तीनों लोक क्षुब्ध हो उठे। (६९) पुत्रका जन्म देखकर अत्यन्त आनन्दविभोर नाभि राजा मनोहर नगाड़े और दूसरे वाद्योंकी ध्वनिसे शादायमान तथा मङ्गल और मूल्यवान् पदार्थोंसे आनन्द मनाने लगे । (७०) पवित्र वायुसे आहत और इसीलिये चलायमान अपने सिंहासनोंको देखकर अवधिज्ञानसे देवेन्द्रोंने जाना कि जिनेश्वर भगवानका जन्म हुआ है (७१)
शंखध्वनि करते हुए भवनवासी देव, दुन्दुभिनाद करते हुए व्यन्तर देव तथा सिंहनाद करते हुए ज्योतिर्देव संभ्रमके साथ खड़े हो गए। (७२) घण्टाके शब्दसे बोधित कल्प-देवलोकके इन्द्र भी अपनी अपनी ऋद्धि-समृद्धिके साथ चल पड़े
और इस मनुष्यलोकमें आए । (७३) हाथी, घोड़े, वृषभ, सिंह, विमान तथा उत्तम वाहनोंमें आरूढ चारों प्रकारके देव नाभि कुलकरके घर पर आ पहुँचे । ( ७४) भगवानके जन्मसे आनन्दमें आए हए देवोंने नाभि राजाके घरमें वैडूर्य, हीरे, मरकत, कर्केतन . रत्न विशेष ) तथा सूर्यकान्तमणिसे देदीप्यमान ऐसी रत्नोंकी वृष्टि की। (७५) इसके पश्चात् इन्द्रके
१. राजते। २. नाऊण मुइण मत्थं नाभी तो भणइ प्रिययमे : तुझं-प्रत्य० । ३. मासाणि-मु०। ४. लक्ष्ण-प्रत्यं० । ५. खेत-प्रत्यः। ६. मतिज्ञान, श्रुतज्ञान तथा अवधिज्ञान, ये तीन ज्ञान तीर्थकर होनेवाले जोक्को गर्भावस्थासे ही होते हैं। जैनदर्शनके अनुसार ज्ञानके विभाग एवं प्रत्येककी परिभाषा आदिके लिये तत्त्वार्थसूत्र १०१सू०९ से समग्र अध्याय देखना चाहिए।
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