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________________ पउमचरियं [३. ४९नह चन्दो परिवइ, ओसरइ य अप्पणो सभावेणं । उस्सप्पिणी वि वडइ, एवं अवसप्पिणीहाणी ॥ ४९ ॥ तइयम्मि कालसमए, पल्लोवमअट्ठभागसेसम्मि। पढमो कुलगरवसभो, उप्पन्नो पडिसुई नामं१ ॥ ५० ॥ जाईसरो महप्पा, नाणइ जो तिण्णि जम्मसंबन्धे । तस्स य सुई पसन्ना, वसइ सुहं सबओ वमुहा ॥ ५१ ॥ एवं समइक्वन्ते, काले तो सम्मुई समुप्पन्नो२ । खेमंकरो य एत्तो३, तओ य खेमंधरो नाओ४ ॥५२॥ सीमंकरो महप्पा५ नाओ सीमंधरो६ पयाणन्दो७ । तत्तो य चरकुनामो, उप्पन्नो भारहे वासे८ ॥५३॥ दट्टण चन्द-सूरे, भीओ आसासिओ जणो जेणं । सिटुं च निरवसेसं, जहवत्तं कालसमयम्मि ॥ ५४॥ तत्तो हवे महप्पा, उप्पन्नो विमलवाहणो धीरो९ । अभिचन्दो१० चन्दाभो११ मरुदेव१२ पसेणई १३ नाभी१४ ॥५५॥ एए कुलगरवसभा, चोइस भरहम्मि जे समुप्पन्ना । पुहईसु नीइकुसला, लोयस्स वि पिइसमा आसी ॥ ५६ ॥ गिहपायवो विचित्तो. बहुविहउज्जाण-वाविपरिकिष्णो । भोगठिईणाऽऽवासो, जत्थ य नाभी सयं वसइ ।। ५७ ॥ तस्स य बहगुणकलिया, जोबण-लावण्ण-रूवसंपन्ना। मरुदेवि त्ति पिया सा, भज्जा देवी व पच्चक्खा ॥ ५८ ॥ ताहे च्चिय परियम्म, हिरि-सिरि-धिइ-कित्ति-बुद्धि-लच्छीओ। आणं करेन्ति निच्चं, देवीओ इन्दवयणेणं ॥ ५९ ॥ आहार-पाण-चन्दण-सयणा-ऽऽसण-मज्जणाइविणिओगं। वहन्ति देवयाओ, वीणा-गन्धब-नट्टे य ।। ६० ॥ अह अन्नया कयाई, सयणिज्जे महरिहे सुहपमुत्ता। पेच्छइ पसत्थसुमिणे, मरुदेवी पच्छिमे जामे ॥ ११ ॥ वसह१ गय२ सीह६ वरसिरि४ दामं५ ससि६ रवि७ झयं चमकलसं च९। सर १० सायरं ११ विमाणं-वरभवणं१२ रयणकूड १३ऽग्गी१४ ॥ ६२ ॥ जिस प्रकार चन्द्रमा अपने स्वभावके अनुसार ही बढ़ता-घटता है उसी प्रकार उत्सर्पिणी में वृद्धि तथा अवसर्पिणीमें हानि होती है। (४६) कालके तृतीय विभागमें पल्योपमका आठवाँ भाग शेष रहनेपर कुलकरोंमें श्रेष्ठ ऐसा प्रतिश्रति नामका यम कुलकर हुआ। (५०) उस महात्माको जातिस्मरण ज्ञान हुआ था जिससे वह अपने तीन पूर्वजन्मोंके सम्बन्धोंका जानता था। उसकी स्मृति स्वच्छ थी तथा पृथ्वोपर सब ओर सुख छाया था। (५१) इस प्रकार समय व्यतीत होनेपर सन्मति उत्पन्न हुआ। उसके पश्चात् क्षेमंकर हुआ। क्षेमंकरके बाद क्षेमन्धर हुआ। (५२) उसके अनन्तर महात्मा सीमंकर हुआ, उसके पश्चात् प्रजाको आनन्द देनेवाला सीमन्धर हुआ। उसके बाद भारतवर्ष में चक्षु नामका कुलकर हुआ। (५३) उसने चन्द्र एवं सूर्यसे भयभीत लोगोंको आश्वासन दिया और प्रत्येक काल एवं समयमें जो कुछ घटित हुआ था वह सब लोगोंको समझाया। (५४) उसके बाद महात्मा और धीर विमलवाहन, चन्द्र के तुल्य कान्तिवाला अभिवन्द्र तथा मरुदेव, प्रसेनजित तथा नाभि हुए। (५५) भरतक्षेत्रमें उत्पन्न ये चौदह महान् कुलकर राजनीतिमें कुशल थे और लोगोंके लिये भी प्रियतुल्य थे। (५६) स्वयं नाभि कुलकर जिसपर रहता था वह गृह-कल्पवृक्ष अत्यन्त सुन्दर, अनेक प्रकारके उद्यान एवं बावड़ियोंसे परिव्यान और आनन्दका आवास था। (५७) उसकी अनेक गुणोंसे सम्पन्न, यौवन, सौन्दर्य एवं रूपसे युक्त तथा साक्षात् देवी जैसी ममदेवी नामकी पत्नी थी। (५८) इन्द्रकी आज्ञाके अनुसार हो. श्री, धृति, कीर्ति, बुद्धि एवं लक्ष्म नामकी देवियाँ उसकी नित्य सेवा करती थीं और आज्ञा उठानेमें सदैव तत्पर रहती थों। (५९) देवता वीगावादन, गान तथा नृत्य करती हैं और उनका आहार, पान, चन्दन-विलेपन, शयन, आसन तथा स्नान आदि कायोंको सम्पन्न करके वर्धापन करती थी। (६.) एक दिन अत्यन्त मूल्यवान शैयापर सोई हुई मरुदेवीने रातके अन्त भागमें प्रशस्त स्वप्न देखे । (६१) वे स्वप्न थे-१ वृषभ, २ गज, ३ सिंह, ४ लक्ष्मी, ५ माग, ६ चन्द्रमा, ७ सूर्य ८ध्वजा, ९ कलश, १० सरोवर, ११ सागर, १२ विमान-उत्तम भवन, १३ रत्नराशि, और १४ अनि । (६२) स्वप्न पूरे होनेपर, सूर्यके उदयसे अभी-अभी खिली १. महाणंदो-प्रत्य० । २. नणं मु.। ३. श्वेताम्बर परम्परामें चौदह तथा दिगम्बर परम्परामें मोनयुगल तथा उत्तम भवन इन दो को मिलाकर १६ स्वप्न माने जाते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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