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________________ २.९२] २. सोणियचिंताविहाणं अन्ने पुणो वि केई, वीस जिणकारणाइँ भावेउं । तेलोक्कखोभणकर, अणन्तसोर्ख समज्जन्ति ॥ ८२ ॥ अन्ने तवं विगिट्ट, काउं. थोवावसेससंसारा। दो तिणि भवे गन्तुं, निवाणमणुत्तरमुवेन्ति ॥ ८३ ।। काऊण तवमुयार, आराहिय धीबलेण कालगया । ते होन्ति वरअणुत्तर-विमाणवासेस अहमिन्दा ॥ ८४ ॥ तत्तो चुया समाणा, हलहर-चक्कहरभोग-रिद्धीओ। भोत्तण सुचिरकालं. धम्म काउण सिज्झन्ति ८५ ॥ घेत्तण समणधम्म, घोरपरीसहपराइया अन्ने । भजन्ति संजमाओ, सेवन्ति अणुबयाणि पुणो ॥ ८६ ।। तुट्टा हवन्ति अन्ने, दरिसणमेत्तेण जिणवरिन्दाणं । पच्चक्खाणनिवित्तिं, न वि ते सुविणे वि गेहन्ति ॥ ८७ ।। मिच्छत्तमोहियमई, निस्सीला निबया गिहारम्भे । पविसन्ति महाघोरं, संगामं विसयरसलोला || ८८ ॥ अन्ने वि करिसणाई, वावारा विविहजन्तुसंबाधा । काऊण जन्ति नरयं, 'तिवमहावेयणं घोरं ।। ८९ ॥ माया-कुडिलसहावा, कूडतुला-कूडमाणववहारा। धम्म असद्दहन्ता, तिरिक्खजोणी उवणमन्ति ॥ ९० ॥ उज्जयधम्मायारा, तणुयकसाया सहावभद्दा य । मज्झिमगुणेहि जुत्ता, लहन्ति ते माणसं जम्मं ॥ ९१ ॥ अणुवय-महबएहि य, बालतवेण य हवन्ति संजुत्ता । ते होन्ति देवलोए, देवा परिणामनोगेणं ॥ ९२ ॥ आश्चर्यकारी ऐसा अनन्त सुख प्राप्त किया है। (२) दूसरे ऐसे भी हैं जो घोर तप करके अपने संसारको अल्प कर देते हैं और दो या तीन भव तक इस संसार में परिभ्रमण करके फिर अनुपम निर्वाण प्राप्त करते हैं। (८३) वे लोग जो उत्तम तप करते हैं तथा अपने बुद्धिबलके अनुसार आराधना करके मृत्यु प्राप्त करते हैं वे उत्तम अनुत्तर-विमानोंमें३ अहमिन्द्र रूपसे उत्पन्न होते हैं। (८४) वहाँसे च्युत होने पर वे बलदेव, एवं चक्रवर्तीके भोग व ऐश्वर्यका चिरकाल तक उपभोग करके और बादमें धर्मका आचरण करके सिद्ध होते हैं । (५) दूसरे ऐसे भी होते हैं जो घोर परीषहोंसे पराजित होकर संयमसे भ्रष्ट होते हैं और पुनः गृहस्थके अणुव्रतोंका पालन करते हैं। (८६) कई लोग ऐसे भी होते हैं जो जिनवरेन्द्र के दर्शनमात्रसे संतं प मानते हैं। वे स्वप्नमें भी प्रत्याख्यान (त्याग) और उससे प्राप्त होनेवाले सुखका अनुभव नहीं करते । (८७) मिथ्यात्वसे जिनकी मति मोहित हो गई है ऐसे चारित्रहीन, ब्रतरहित एवं विषयरसमें आसक्त मनुष्य अतिघोर संग्राम जैसे गृहारम्भमें प्रवेश करते हैं। (८८) दूसरे मनुष्य खेती आदि व्यवस्था में अनेक प्रकारके जन्तुओंका विनाश करके तीव्र एवं अत्यन्त दुःखसे परिपूर्ण घोर नरकमें जाते हैं। (८९) छल कपटयुक्त एवं कुटिल स्वभाववाले, झूठे माप-तौलसे धन्धारोजगार करनेवाले तथा धर्ममें अश्रद्धा रखनेवाले तिर्यच योनिमें उत्पन्न होते हैं। (९०) जो सरल स्वभावके और धर्मका आचरण करनेवाले हैं, जिनके कषाय मन्द हैं और जो स्वभावसे भद्र तथा मध्यम गुणोंसे युक्त हैं वे मनुष्यजन्म प्राप्त करते हैं। (५१) जो अणुव्रत और महाव्रतका पालन करते हैं और बालककी भाँति समझ बूझे बिना बाल-तप करते हैं वे अपने-अपने परिणामके अनुसार देवलोकोंमें देव रूपसे उत्पन्न होते हैं । (९२) जो ज्ञान, दर्शन एवं चारित्रमें तथा परस्पर १. गच्छति-प्रत्य। २. घोरमणतं दुरुत्तारं-प्रत्यः । ३. स्वर्ग लोकके अप्रभागमें विजय, बैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्ध ये पाँच विमान एक दूसरेके ऊपर-ऊपर आए हैं। ये सवसे उत्तर-प्रधान होनेके कारण अनुत्तर कहलाते हैं। इनमें से प्रथमके चार विमानों के देव द्विचरम अर्थात् दो बार मनुष्य जन्म धारण करके मोक्ष जाते हैं, जबकि सर्वार्थसिद्ध विमानके देव एक चरम-एक बार ही मनुष्य जन्म लेते हैं। वे उस विमानसे च्युत होने पर मनुष्यत्व धारण करके उसी जन्ममें मोक्ष प्राप्त करते हैं। अनुत्तर देवलोकका प्रत्येक देव इन्द्र जैसा स्वाधीन होता है। अत: उसे 'अहमिन्द्र' कहते हैं। ४. धर्ममार्गमें स्थिर रहने और कर्मवन्धनोंके विनाशार्थ जो भूख, प्यास आदि स्थिति समभावपूर्वक सहन करने योग्य है उसे परोषह कहते हैं। परौषह कुल वाईस हैं। विशेषके लिये देखो तत्त्वार्थ पूत्र अ. ९ सू० ८.१। ५. गृहस्थके व्रत अणुव्रत कहलाते हैं। ये बारह हैं-(१) अहिंसा अणुव्रत, (क) सत्य अणुव्रत, (३) अचौर्य अणुव्रत, (४) ब्रह्मचर्य अणुव्रत, (५) अपरिग्रह अणुव्रत, (६) दिग्विरतिव्रत, (७) देशविरतिव्रत, (८)अनर्थदण्ड विरतिव्रत, (९) सामायिक व्रत, (१०) पोषधोपवास व्रत, (११) उपभोग परिभोग परिमाण व्रत, और (१२) अतिषिसंविभाग व्रत । इन व्रतोंके ब्योरेवार वर्णनके लिये देखो तत्त्वार्थसूत्र अ. ७ सू०१५-१६ । ६. हिंसा, असत्य, चोरी, बनम (कामवासना ) तथा परिप्रहके समप्र भावसे त्यागको महामत कहते हैं। महावत पाँच हैं-अहिंसा, सत्य, अचौर, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह । योगशास्त्र में इसे 'यम' कहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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